Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ. २२ नेमिनाथचरितनिरूपणम्
एतश्च मूत्रकारोऽपि वर्णयतिमूलम्-अहं सा भमरसंनिभे, कुच्चफंणगपसाहिए।
सयमेवं लंचंइ केसे, विईमंता क्वस्सिया ॥३०॥ छाया-अथ सा भ्रमरसन्निभान् , कूर्चफणकसभिभान् । . स्वयमेव लुश्चति केशान , धृतिमती व्यवसिता ॥३०॥ टीका 'अह' इत्यादि।
अथ धर्मदेशनाश्रवणानन्तरं धृतिमतीधैर्ययुक्ता व्यवसिता-धर्माङ्गी करणे. ऽध्यवसाययुक्ता सा राजीमती भ्रमरसनिभान्=कृष्णतयाऽऽकुश्चिततया च भ्रमर तुल्यान्, कूर्च कण प्रसाधितान्-कूर्चेन-मशलाकानिर्मितेन 'वो' इति प्रसिट्रेन, फगकेन-तकन च प्रसाधितान्-संस्कृतान् केशान् भगवदनुज्ञया स्वयमेव लुश्चति अपनयति ॥३०॥ धार्मिक देशना सुनकर राजीमतीने सातसौ सखियों के साथ भगवान् के समीप दीक्षा धारण की ॥
सूत्रकार अब इसीवात का वर्णन करते है-'अहसा' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(अह-अय) प्रभु नेमिनाथ भगवानकी धर्मदेशना सुनने के बाद (बिहमंता-धृतिमति) धैर्ययुक्त तथा (ववस्पिया-व्यवसिता) धर्म अंगीकार करने के अध्यवसायवाली (सा-सा) उस राजीमतीने (भमरसंनिभे-भ्रमरसन्निभान्) भ्रमर के समान काले तथा (कुच्चकणकपसाहिए-कूर्चफणकसन्निभान्) कुंची एवं फगक-कङ्कतक-से समारे हए अपने (केसे-केशान्) केशो का (सयमेर हुँचइ-स्वयमेव लुश्चति) अपने हाथों से ही लुश्चन किया ॥३०॥ સમયે એમનો ધર્મદેશના સાંભળીને રાજીમતીએ સાતસો સખીની સાથે ભગવા નન સમક્ષ દીક્ષા ધારણ કરી લીધી.
सूत्रा२ वे थे पातनु न ४३ छे. "अहसा" छत्यादि !
मन्याय-अह-अथ प्रभु नेमिनाथ माननी शनाने समय पछी धिइमंता-धतिमति धने पा२५ ४२नार तथा ववस्सिया-व्यवसिता भने मी. ४४२ ४२वाना मध्यवसायी सा सा ये समतीय भमरसंनिभे-भ्रमरसंनिभान समान ४ तथा कुच्चफणकपसाहिए-कूर्चफणकसन्निभान् ४२ शेते साया airt केसे-केशान् शानु सयमेव लुंचइ-स्वयमेव लुञ्चति पोताना पाययी तयन यु ॥30॥
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩