Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे राग द्वेषौ, अतस्तद्रूपपाशच्छेदनविषये चतुर्थः प्रश्नः ४ । तत्रापि लोभ एक, दुरन्तः, अतो लोभरूप लतोच्छेदनविषये पञ्चमः प्रश्नः ५ लोभरूपलतोच्छेदोऽपि न कषायरूपाग्निनिर्वापणं विना संभवति, अतोऽग्निनिर्वापण विषये पाठः प्रश्नः ६ । तन्निर्वापणं मनस्य निगृहीते न संभवति, अतो दुष्टाश्वनिग्रहविषये सप्तमः पश्चः ७। मनोरूपदुष्टाश्वनिग्रहे कृत्वेऽपि सम्यङ्मार्गपरिज्ञानं विना न संभवति स्वाभिमतमोक्षरूपपद प्राप्तिरिति सम्यङ्मार्गविषये अष्टमः प्रश्नः ८। है अतः तृतीय प्रश्न 'अणेगाणसहस्साणं' इत्यादि से भाव शत्रु जय के विषय में किया गया है। ।३। शत्रुओं में सब से प्रबल शत्रु इस आत्मा के लिये उत्कट कषाय तथा कपायात्मक रागद्वेष हैं, इसलिये छेदन के विषय में 'दीसंति' इत्यादि से चतुर्थ प्रश्न हुआ है ।४। लोभ कपाय दुरन्त है इसलिये पंचम प्रश्न में इस लोभरूप कषाय को उखाडने की बात 'अंतो हिययसंभूया' इत्यादि से पूछी गई है ।। लोभ कषाय का उच्छेद भी कषायरूप अग्नि के निर्वापण विना संभावित नहीं होता है इसलिये षष्ठ प्रश्न में अग्नि के रूपक द्वारा उसके निर्वापण के विषय में "संपज लिया य' इत्यादि से प्रश्न किया गया है। ।६। अग्नि का निर्बापण जब तक मन निगृहीत नहीं होता है तब तक नहीं हो सकता है इसलिये मनरूप दुष्ट अश्व के निगृह के विषय में "अयं साहसिओ' इत्यादि से सप्तम प्रश्न हुआ है ।७। जबतक भले मार्ग का परिज्ञान नहीं हो जाता है तबतक मनरूप दुष्ट अश्व का निग्रह होने पर भी जीवों शता नथी. साथी श्री प्रल "अणेगाणसहस्साणं" त्याहिया मार शत्रु यिनी વિષયમાં કરાયેલ છે. ૩ શત્રુઓમાં સહુથી પ્રબળ શત્રુઓ આત્મા માટે ઉત્કટ पाय तथा ४ायात्म २।। ६५ छ. मा ४२॥णे छेना विषयमा 'दीसंति' त्या ! ચે પ્રશ્ન થયેલ છે. ૪લેભ કષાય દુરન્ત છે, આ કારણે પાંચમા પ્રશ્નમાં આ सोम ३५ षायने मेवानी वात "अंतो हिययसंभ्रया" त्याहिथी पूछवामा આવેલ છે. ૫ લેભ કષાયને ઉછેદ પણ કષાય રૂપ અગ્નિના નિર્વાણુ વગર સંભવિત હોતે નથી આથી છઠા પ્રશ્નમાં અગ્નિના રૂપક દ્વારા તેના નિર્વાણ પણુના विषयमा "संपजलिया य" त्याहिथी प्रश्न ४२वामा पास छ ।६। मनिनु निर्वा५
જ્યાં સુધી મન નિગ્રહિત થતું નથી ત્યાં સુધી થઈ શકતું નથી. આ કારણે મન ३५ हुट भवन नयना विषयमा “ अयं साहसिओ" त्याहिया સાતમો પ્રશ્ન થયેલ છે. જ્યાં સુધી સીધા માર્ગનું પરિજ્ઞાન થઈ જતું નથી ત્યાં સુધી મનરૂપ દુષ્ટ અવને નિગ્રહ થવા છતાં પણ અને સ્વાભિમત મોક્ષરૂપની
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩