Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 995
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. २४ अष्टप्रवचनमातृवर्णनम् छाया-चक्षुषा प्रतिलेख्य, प्रमार्जयेद् यतमानो यतिः । ___ आददीत निक्षिपेद् वा, द्वावपि समितः सदा ॥१४॥ टीका--'चक्खुसा' इत्यादि। ___यतमानो यतिः चक्षुषा प्रतिलेख्य-प्रत्युपेक्ष्य-अवलोक्य प्रमाणयेत परिशोधयेत । तदन द्वावपि ओघौपग्रहिकोषधी अपि सदासर्वकालम् समित:उपयुक्तः सन् आददीत-गृह्णीयात्,निक्षिपेत् स्थापयेद् वा ॥१४|| इत्थमादाननिक्षेपसमितिमुक्तवा सम्प्रति परिष्ठापनासमितिमाहमूलम्--उच्चारं पासवणं, खेल सिंधाण जल्लियं । आहारं उवहिं देह, अन्नं वावि तहावि है ॥१५॥ जाया--उच्चारं प्रस्रवण, श्लेष्माणं सिधाणं जल्लम् । ___आहारम् उपधि देहम् अन्यं वापि तथाविधम् ॥१५॥ टीका--'उच्चारं' इत्यादि । उच्चारं=पुरीषं, प्रस्रवणं-मूत्रं, श्लेष्माणं-मुखविनिर्गतं कफम् सि.डणं उसी विधि को मूत्रकार कहते हैं--'चक्खुसा' इत्यादि । अन्वयार्थ---(जयं जई-यतमानः यतिः) यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाले यति को चहिये कि वह (चक्खुसा पडिले हित्ता-चक्षुपा प्रतिलेख्य) सर्वप्रथम उपधि का चक्षु से अच्छी तरह अवलोकन करे पश्चात् उसका (पमजिजप्रमार्जयेत् ) प्रमार्जन करे । इसके बाद (दुहओ-द्वौ अपि) इन दोनों प्रकार की उपधि को (सयासमिए-सदा समितः) सर्वकाल उपयुक्त हुआ वह यनि (आइए निक्खि वेज वा-आददीत निक्षिपेत् वा) उठावे तथा रखखे ॥१४॥ परिष्ठापन समिति का स्वरूप इस प्रकार है--'उच्चारं' इत्यादि। अन्वयार्थ--(उच्चारं-उच्चारम् ) उच्चार (पासवणं-प्रस्रवणम् ) प्रस्रवण मा विधिन सूत्रा२ ४ छ--"चक्खसा" त्याह! मन्वयार्थ --जयं जई-यतमानः यतिः यतना पूर्व प्रवृत्ति ४२११०॥ मुनि भाटे ०४३२नु छ है, ते चक्खुसा पडिलेहिता-चक्षुषा पतिलेख्य सब प्रथम उपधिनु पोतानी माथी सात सयोन पछी तेनुपमजिज-प्रमार्जयेत् प्रभाग ४२ मा प्रमाणे ४ पछी दहओ-द्वौ अपि थे भन्ने प्रा२नी अधिने सया समिए-सदा समितः सबाण उपयुतता भाटे ते यति आइए निक्खि वेज्ज वा-आददीत निक्षिपेत वा पाउ तथा रामे. ॥ १४॥ परिष्ठान समितिनु २५३५ मा प्रा२नु छ--"उच्चारं" त्याहि ! अन्वयार्थ --उच्चार-उच्चारम् २॥२, पासवणं-प्रस्रवणम् प्रसव, खेल ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩

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