Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ. २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम्
एवं के शिना पृष्टे गौतमो यदुक्तबाँस्तदुच्यते-- मूलम् के सिमेवे बुवाणं तु, गोयमो इणमब्बवी !
विन्नाणेण समागम्म, धम्म साहणमिच्छियं ॥३१॥ छाया---केशिनमेवं ब्रुवाणं तु, गौतम इदमब्रवीत् ।
विज्ञानेन समागम्य, धर्मसाधनमिष्टम् ॥३१॥ टीका--'केसिमेव' इत्यादि।
एवं पूर्वोक्तरीत्या ब्रुवाण-पृच्छन्तं केशिनं तु गौतम इदं वक्ष्यमानमुत्तरम् अब्रवीत् उक्तशन् । यदुक्तवास्तदुच्यते-'विन्नाणेण' इत्यादिना-हे. भदन्त ! विज्ञानेन=केवलज्ञानेन समागम्यम्यस्य यदुचितं तथैव ज्ञात्वा धर्मसाधनम् धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादिकं पार्श्वनाथवर्द्धमानस्वामिभ्याम् इष्टम् अनुमतम्-अनुभी तीर्थकर को भेद इष्ट नहीं है फिर कारण में भेद क्यों ? (मेहावामेधावी) हे मेधाविन् (दुविहे लिङ्गे-द्विविधे लिङ्गे) अचेलक रूप तथा विविधवर्ण बहुमूल्य वस्त्ररूप, इन दो लिङ्गो में (ते विप्पच्चओ कहं न-ते विप्रत्ययः कथं न) आपको संदेह क्यों नहीं होता है ॥२९॥३०॥
केशी श्रमण के पूछने पर गौतम स्वामी ने क्या कहा? सो कहते हैं.---'केसिमेवं' इत्यादि।
अन्वयार्थ--(एवं-एवम् ) इस पूर्वोक्त रूप से (बुवाणं-ब्रुवाणम्) (केसिं-केशिनम् ) केशी श्रमणकुमार से (गोयमो इणमब्बवो-गौतम इदम् अब्रवीतः) गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! (विन्नाणेण समागम्म-विज्ञानेन समागम्य) विज्ञान-केवलज्ञान से जिस को जो उचित था उस को उसी रूप से जानकर (धम्मसाहणम्-धर्मसाधनम् ) वह धर्मसाधन लेह साय नथी तो ४२५ मा ले शा भाटे १ मेहावी-मेधावी भेधाविन् ! दुबिहे लिङ्ग-द्विविधे लिङ्गे गये।४३५ तथा-विविध १९ भूक्ष्य १२७३५ २0 मे लिगामा ते विप्पच्चयो कहन-ते विप्रत्ययः कथं न मापने सड भाट नथी यता ? ॥२६॥३०॥
शी श्रमाना पूछपाथी गौतम स्वाभीसे शुधु ? तेने ४.--"केसीमेव" छत्याही ___ मन्याय --एवं-एवम् । पूर्वरित३५थी बुवाणं-ब्रुवाणम् पूछावण के सिंकेशिनम् शोभा२ श्रमाने गोयमो इणमब्बवी-गौतमः इदमब्रवीत् गोतमामीले An E२ ४यु-3 महन्त विन्नाणेण समागम्म-विज्ञानेन समागम्य विज्ञान
ज्ञानयी ने रे अयित तु मेने मे४ ३५थी नवीन धम्मसाहणम्-धर्म
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ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૩