Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है—कुछ लोग मन से प्रत्याख्यान (अशुभ कार्य का त्याग) करते हैं और कुछ लोग वचन से प्रत्याख्यान करते हैं । अथवा प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है—कुछ लोग दीर्घकाल तक प्रत्याख्यान करते हैं और कुछ लोग अल्पकाल तक प्रत्याख्यान करते हैं (३९)। व्याख्या गर्दा के समान समझना चाहिए। विद्या-चरण-पद
४०- दोहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणादीयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं वीतिवएज्जा, तं जहा विजाए चेव चरणेण चेव।
विद्या (ज्ञान) और चरण (चारित्र) इन दोनों स्थानों से सम्पन्न अनगार (साधु) अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले एवं चतुर्गतिरूप विभागवाले संसार रूपी गहन वन को पार करता है, अर्थात् मुक्त होता है (४०)। आरम्भ-परिग्रह-अपरित्याग पद
४१-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तं जहाआरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४२- दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं बोधिं बुज्झेज्जा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४३– दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४४- दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं बंभचेरवासमावसेजा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४५- दो ठाणाइं अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संजमेणं संजमेजा, तं जहा–आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४६-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४७-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४८- दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं सुयणाणं उप्पाडेजा, तं जहा आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ४९-- दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं ओहिणाणं उप्पाडेजा, तं जहा–आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५०-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। ५१- दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलं केवलणाणं उप्पाडेजा, तं जहा–आरंभे चेव, परिग्गहे चेव।
आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े बिना आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन पाता (४१) । आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव नहीं कर पाता (४२) । आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा मुण्डित होकर घर से (ममता-मोह छोड़ कर) अनगारिता (साधुत्व) को नहीं पाता (४३) । आरम्भ और परिग्रहइन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त नहीं होता (४४)। आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा संपूर्ण संयम से संयुक्त नहीं होता (४५)। आरम्भ और परिग्रह इन दो स्थानों को जाने और छोड़े बिना आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवृत नहीं होता (४६) । आरम्भ और