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४. एकार्थिक- विशेष— एक अर्थ के वाचक शब्दों की निरुक्ति-जनित विशेष प्रकार ।
५. कारण - विशेष कारण के विशेष प्रकार ।
६. प्रत्युत्पन्न दोष - विशेष— वस्तु को क्षणिक मानने पर कृतनाश और अकृत - अभ्यागम आदि दोषों की
प्राप्ति ।
७. नित्यदोष - विशेष - वस्तु को सर्वथा नित्य मानने पर प्राप्त होने वाले दोष के विशेष प्रकार । ८. अधिकदोष - विशेष- वादकाल में दृष्टान्त, उपनय आदि का अधिक प्रयोग | ९. आत्मोपनीत - विशेष— उदाहरण दोष का एक प्रकार । १०. विशेष— वस्तु का भेदात्मक धर्म (९५)।
शुद्धवाग्-अनुयोग-सूत्र
९६ – दसविधे सुद्धवायाणुओगे पण्णत्ते, सायंकारे, एगत्ते, पुधत्ते, संजहे, संकामिते, भिण्णे ।
स्थानाङ्गसूत्रम्
जहा - चंकारे, मंकारे, पिंकारे, सेयंकारे,
वाक्य-निरपेक्ष शुद्ध पद का अनुयोग दश प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. चकार - अनुयोग—— 'च' शब्द के अनेक अर्थों का विस्तार। जैसे कहीं 'च' शब्द समुच्चय, कहीं अन्वादेश, कहीं अवधारण आदि अर्थ का बोधक होता है।
२. मकार - अनुयोग — 'म' शब्द के अनेक अर्थों का विस्तार। जैसे- 'जेणामेव, तेणामेव' आदि पदों में उसका प्रयोग आगमिक है, लाक्षणिक या प्राकृतव्याकरण से सिद्ध नहीं, आदि ।
३. पिकार - अनुयोग — 'अपि' शब्द के सम्भावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय आदि अनेक अर्थों का विचार |
४. सेयंकार-अनुयोग— 'से' शब्द के अनेक अर्थों का विस्तार । जैसे—कहीं ' से ' शब्द ' अथ' का वाचक होता है, कहीं 'वह' का वाचक होता है, आदि।
५. सायंकार-अनुयोग— ‘सायं' आदि निपात शब्दों के अर्थ का विचार । जैसे— वह कहीं सत्य अर्थ का और कहीं प्रश्न का बोधक होता है।
६. एकत्व - अनुयोग — एकवचन के अर्थ का विचार । जैसे—'नाणं च दंसणं चेव, चरितं य तवो तहा । एस मग्गुत्ति पन्त्रतो' यहां पर ज्ञान, दर्शनादि समुदितरूप को ही मोक्षमार्ग कहा है। यहां बहुतों के लिए भी ' मग्गो' यह एकवचन का प्रयोग किया गया है।
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७. पृथक्त्व - अनुयोग — बहुवचन के अर्थ का विचार । जैसे—'धम्मत्थिकायप्पदेसा' इस पद में बहुवचन का प्रयोग उसके असंख्यात प्रदेश बतलाने के लिए है।
८. संयूथ - अनुयोग — समासान्त पद के अर्थ का विचार । जैसे—' सम्मदंसणसुद्ध' इस समासान्त पद का . विग्रह अनेक प्रकार से किया जा सकता है—
१. 'सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध' - तृतीया विभक्ति के रूप में,
२. 'सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध' - चतुर्थी विभक्ति के रूप में,
३. 'सम्यग्दर्शन से शुद्ध पंचमी विभक्ति के रूप 1