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स्थानाङ्गसूत्रम्
विग्गहगती, (मणुयगती मणुयविग्गहगती, देवगती, देवविग्गहगती), सिद्धगती, सिद्धविग्गहगती।
गति दश प्रकार की कही गई है, जैसे१. नरकगति, २. नरकविग्रहगति, ३. तिर्यग्गति, ४. तिर्यग्विग्रहगति, ५. मनुष्यगति, ६. मनुष्यविग्रहगति, ७. देवगति, ८. देवविग्रहगति, ९. सिद्धिगति, १०. सिद्धि-विग्रहगति (९८)।
विवेचन- 'विग्रह' शब्द के दो अर्थ होते हैं—वक्र या मोड़ और शरीर । प्रारम्भ के आठ पदों में से चार गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव ऋजु और वक्र दोनों प्रकार से गमन करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक गति का प्रथम पद ऋजुगति का बोधक है और द्वितीयपद वक्रगति का बोधक है, यह स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु सिद्धिगति तो सभी जीवों की 'अविग्रहा जीवस्य' इस तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार विग्रहरहित ही होती है अर्थात् सिद्धजीव सीधी ऋजुगति से मुक्ति प्राप्त करते हैं। इस व्यवस्था के अनुसार दशवें पद 'सिद्धिविग्रहगति' नहीं घटित होती है। इसी बात को ध्यान में रखकर संस्कृत टीकाकार ने 'सिद्धिविग्गहगइ'त्ति सिद्धावविग्रहेण–अवक्रेण गमनं सिद्ध्यविग्रहगतिः, अर्थात् सिद्धि-मुक्ति में अविग्रह से बिना मुड़े जाना, ऐसी निरुक्ति करके दशवें पद की संगति बिठलाई है। नवें पद को सामान्य अपेक्षा से और दशवें पद को विशेष की विवक्षा से कहकर भेद बताया है। मुण्ड-सूत्र
९९- दस मुंडा पण्णत्ता, तं जहा सोतिंदियमुंडे, (चक्खिदियमुंडे, घाणिंदियमुंडे, जिब्भिदियमुंडे), फासिंदियमुंडे, कोहमुंडे, (माणमुंडे, मायामुंडे) लोभमुंडे, सिरमुंडे।
मुण्ड दश प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड– श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का मुण्डन (त्याग) करने वाला। २. चक्षुरिन्द्रियमुण्ड-चक्षुरिन्द्रिय के विषय का मुण्डन करने वाला। ३. घ्राणेन्द्रियमुण्ड-घ्राणेन्द्रिय के विषय का मुण्डन करने वाला। ४. रसनेन्द्रियमुण्ड— रसनेन्द्रिय के विषय का मुण्डन करने वाला। ५. स्पर्शनेन्द्रियमुण्ड— स्पर्शनेन्द्रिय के विषय का मुण्डन करने वाला। ६. क्रोधमुण्ड-क्रोध कषाय का मुण्डन करने वाला। ७. मानमुण्ड- मानकषाय का मुण्डन करने वाला। ८. मायामुण्ड- मायाकषाय का मुण्डन करने वाला। ९. लोभमुण्ड- लोभकषाय का मुण्डन करने वाला।
१०. शिरोमुण्ड— शिर के केशों का मुण्डन करने-कराने वाला (९९)। संख्यान-सूत्र
१००– दसविधे संखाणे पण्णत्ते, तं जहासंग्रहणी गाथा
परिकम्मं ववहारो रज्जू रासी कला-सवण्णे य । जावंतावति वग्गो, घणो य तह वग्गवग्गोवि ॥१॥ कप्पो य० ॥