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११९ – दीहदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता,
तं जहा
चंदे सूरे य सुक्के य, सिरिदेवी पभावती । दीवसमुद्दोववत्ती बहूपुत्ती मंदरेति य ॥ थेरे संभूतिविजय, थेरे पम्ह ऊसासणीसासे ॥ १ ॥
स्थानाङ्गसूत्रम्
दीर्घदशा के दश अध्ययन कहे गये हैं, जैसे
१. चन्द्र, २. सूर्य, ३. शुक्र, ४. श्रीदेवी, ५. प्रभावती, ६. द्वीप - समुद्रोपपत्ति, ७. बहुपुत्री मन्दरा, ८. स्थविर सम्भूतविजय, ९. स्थविर पक्ष्म, १०. उच्छ्वास - नि:श्वास (११९) ।
१२० – संखेवियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा — खुड्डिया विमाणपविभत्ती, महल्लिया विमाणपविभत्ती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, विवाहचूलिया, अरुणोववाते, वरुणोववाते, गरुलोववाते, वेलंधरोववाते, वेसमणोववाते ।
कालचक्र-सूत्र
संक्षेपिकदशा के दश अध्ययन कहे गये हैं, जैसे
१. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति, २. महतीविमानप्रविभक्ति, ३. अंगचूलिका ( आचार आदि अंगों की चूलिका), ४. वर्गचूलिका (अन्तकृत्दशा की चूलिका), ५. विवाहचूलिका (व्याख्याप्रज्ञप्ति की चूलिका), ६. अरुणोपपात, ७. वरुणोपपात, ८. गरुडोपपात, ९. वेलंधरोपपात, १०. वैश्रमणोपपात (१२९) ।
१२१ – दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणीए ।
अवसर्पिणी का काल दश कोडाकोडी सागरोपम है ( १२१) । १२२ – दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणीए । उत्सर्पिणी का काल दश कोडाकोडी सागरोपम है (१२२) । अनन्तर-परम्पर-उपपन्नादि - सूत्र
१२३ – दसविधा णेरड्या पण्णत्ता, तं जहा अणंतरोववण्णा, परंपरोववण्णा, अणंतरावगाढा, परंपरावगाढा, अणंतराहारगा, परंपराहारगा, अणंतरपज्जत्ता, परंपरपज्जता, चरिमा, अचरिमा ।
एवं निरंतरं जाव वेमाणिया ।
नाक दश प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. अनन्तर - उपपन्न नारक — जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय हुआ है।
२.
परम्पर- उपपन्न नारक — जिन्हें उत्पन्न हुए दो आदि अनेक समय हो चुके हैं।
३.
अनन्तर - अवगाढ नारक— विवक्षित क्षेत्र से संलग्न आकाश-प्रदेश में अवस्थित ।
४. परम्पर- अवगाढ नारक— विवक्षित क्षेत्र से व्यवधान वाले आकाश-प्रदेश में अवस्थित ।
५.
अनन्तर आहारक नारक— प्रथम समय के आहारक ।
६. परम्पर- आहारक नारक— दो आदि समयों के आहारक ।