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दशम स्थान
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अनुराधा नक्षत्र चन्द्रमा के सर्वाभ्यन्तर-मण्डल से दशवें मण्डल में संचार करता है (१६९)। ." ज्ञानवृद्धिकर-सूत्र
१७०- दस णक्खत्ता णाणस्स विद्धिकरा पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी गाथा
मिगसिरमद्दा पुस्सो, तिण्णि य पुव्वाइं मूलमस्सेसा ।
हत्थो चित्ता य तहा, दस विद्धिकराई णाणस्स ॥१॥ दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गये हैं, जैसे१. मृगशिरा, २. आर्द्रा, ३. पुष्य, ४. पूर्वाषाढा, ५. पूर्वभाद्रपद, ६. पूर्वफाल्गुनी, ७. मूल, ८. आश्लेषा,
९. हस्त, १०. चित्रा। ये दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करते हैं (१७०)। कुलकोटि-सूत्र
१७१- चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दस जाति-कुलकोडि-जोणिपमुह-सतसहस्सा पण्णत्ता।
पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक, स्थलचर चतुष्पद की जाति-कुल-कोटियां दश लाख कही गई हैं (१७१)।
१७२- उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दस जाति-कुलकोडि-जोणिपमुह-सतसहस्सा पण्णत्ता।
पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक स्थलचर उर:परिसर्प की जाति-कुल-कोटियां दश लाख कही गई हैं (१७२)। पापकर्म-सूत्र
१७३– जीवा णं दसठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा—पढमसमयएगिंदियणिव्वत्तिए, (अपढमसमयएगिदियणिव्वत्तिए, पढमसमयबेइंदियणिव्वत्तिए, अपढमसमयबेइंदियणिव्वत्तिए, पढमसमयतेइंदियणिव्वत्तिए, अपढमसमयतेइंदियणिव्वत्तिए, पढमसमयचउरिदियणिव्वत्तिए, अपढमसमयचउरिदियणिव्वत्तिए, पढमसमयपंचिंदियणिव्वत्तिए, अपढमसमय) पंचिंदियणिव्वत्तिए।
एवं चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेय तह णिज्जरा चेव। जीवों ने दश स्थानों से निर्वर्तित पुद्गलों का पापकर्म के रूप में संचय किया है, करते हैं और करेंगे। जैसे१. प्रथम समय – एकेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का। २. अप्रथम समय- एकेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का। ३. प्रथम समय-द्वीन्द्रिय निर्वर्तित पदगलों का। ४. अप्रथम समय- द्वीन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का। ५. प्रथम समय— त्रीन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों का।