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दशम स्थान
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वह द्वादशाङ्ग गणिपिटक इस प्रकार है१. आचाराङ्ग, २. सूत्रकृताङ्ग, ३. स्थानाङ्ग, ४. समवायाङ्ग, ५. व्याख्या-प्रज्ञप्ति-अंग, ६. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, ७. उपासकदशाङ्ग, ८. अन्तकृद्दशाङ्ग, ९. अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग १०. प्रश्नव्याकरणाङ्ग, ११. विपाकसूत्राङ्ग और १२. दृष्टिवाद। ४. श्रमण भगवान् महावीर सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने दो प्रकार के धर्म की प्ररूपणा की। जैसे
अगारधर्म (श्रावकधर्म) और अनगार धर्म (साधुधर्म)। ५. श्रमण भगवान् महावीर एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप
श्रमण भगवान् महावीर का चार वर्ण से व्याप्त संघ हुआ। जैसे
१. श्रमण, २. श्रमणी, ३. श्रावक, ४. श्राविका। ६. श्रमण भगवान् महावीर सर्व ओर से प्रफुल्लित कमलों वाले एक महान् सरोवर को स्वप्न में देखकर
प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने चार प्रकार के देवों की प्ररूपणा की।
जैसे— १. भवनवासी, २. वानव्यन्तर, ३. ज्योतिष्क और ४. वैमानिक। ७. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में एक महान् छोटी-बड़ी लहरों से व्याप्त महासागर को स्वप्न में भुजाओं
से पार किया हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने अनादि, अनन्त,
प्रलम्ब और चार अन्त (गति) वाले संसार रूपी कान्तार (महावन) या भवसागर को पार किया। ८. श्रमण भगवान् महावीर तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान
और केवलदर्शन प्राप्त हुआ। ९. श्रमण भगवान् महावीर हरित और वैडूर्य वर्ण वाले अपने आंत-समूह के द्वारा मानुषोत्तर पर्वत को .सर्व ओर से आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर की देव, मनुष्य और असरों के लोक में उदार, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लाघा व्याप्त हुई कि श्रमण भगवान् महावीर ऐसे महान् हैं, श्रमण भगवान् महावीर ऐसे महान् हैं, इस प्रकार से
उनका यश तीनों लोकों में फैल गया। १०. श्रमण भगवान् महावीर मन्दर-पर्वत पर मन्दर-चूलिका के ऊपर एक महान् सिंहासन पर अपने को
स्वप्न में बैठा हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने देव, मनुष्यों
और असुरों की परिषद् के मध्य में विराजमान होकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान किया, प्रज्ञापन
किया, प्ररूपण किया, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया (१०३)। सम्यक्त्व-सूत्र
१०४– दसविधे सरागसम्मइंसणे पण्णत्ते, तं जहा—