Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थान–चतुर्थ उद्देश
उक्त सूत्रों में आए हुए वर्णित आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है१. वर्णित— उपादेयरूप से सामान्य वर्णन करना। २. कीर्तित— उपादेय बुद्धि से विशेष कथन करना। ३. उक्त- व्यक्त और स्पष्ट वचनों से कहना। ४. प्रशस्त या प्रशंसित- श्लाघा या प्रशंसा करना।
५. अभ्यनुज्ञात करने की अनुमति, अनुज्ञा या स्वीकृति देना। भगवान् महावीर ने किसी भी प्रकार के अप्रशस्त मरण की अनुज्ञा नहीं दी है। तथापि संयम एवं शील आदि की रक्षा के लिए वैहायसमरण और गृद्धस्पृष्टमरण की अनुमति दी है, किन्तु यह अपवादमार्ग ही है।
प्रशस्त मरण दो प्रकार के हैं—भक्तप्रत्याख्यान और प्रायोपगमन । भक्त-पान का क्रम-क्रम से त्याग करते हुए समाधि पूर्वक प्राण-त्याग करने को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। इस मरण को अंगीकार करने वाला साधक स्वयं उठ बैठ सकता है, दूसरों के द्वारा उठाये-बैठाये जाने पर उठता-बैठता है और दूसरों के द्वारा की गई वैयावृत्त्य को भी स्वीकार करता है। अपने सामर्थ्य को देखकर साधु संस्तर पर जिस रूप में पड़ जाता है, उसे फिर बदलता नहीं है, किन्तु कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट ही पड़ा रहता है, इस प्रकार से प्राण-त्याग करने को प्रायोपगमनमरण कहते हैं। इसे स्वीकार करने वाला साधु न स्वयं अपनी वैयावृत्त्य करता है और न दूसरों से ही कराता है। इसी से भगवान् महावीर ने उसे अप्रतिकर्म अर्थात् शारीरिक-प्रतिक्रिया से रहित कहा है। किन्तु भक्तप्रत्याख्यानमरण सप्रतिकर्म होता है।
निर्हारिम का अर्थ है—मरण-स्थान से मृत शरीर को बाहर ले जाना । अनिर्झरिम का अर्थ है—मरण-स्थान पर ही मृत-शरीर का पड़ा रहना । जब समाधिमरण वसतिकादि में होता है, तब शव को बाहर ले जाकर छोड़ा जा सकता है, या दाह-क्रिया की जा सकती है। किन्तु जब मरण गिरि-कन्दरादि प्रदेश में होता है, तब शव बाहर नहीं ले जाया जाता। लोक-पद.
४१७ – के अयं लोगे ? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। ४१८-के अणंता लोगे ? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। ४१९ - के सासया लोगे ? जीवच्चेव, अजीवच्चेव।
यह लोक क्या है ? जीव और अजीव ही लोक है (४१७)। लोक में अनन्त क्या है ? जीव और अजीव ही अनन्त हैं (४१८)। लोक में शाश्वत क्या है ? जीव और अजीव ही शाश्वत हैं (४१९)। बोधि-पद
४२०-दुविहा बोधी पण्णत्ता, तं जहा—णाणबोधी चेव, दंसणबोधी चेव। ४२१– दुविहा बुद्धा पण्णत्ता, तं जहा–णाणबुद्धा चेव, दसणबुद्धा चेव।
बोधि दो प्रकार की कही गई है—ज्ञानबोधि और दर्शनबोधि (४२०)।बुद्ध दो प्रकार के कहे गये हैं—ज्ञानबुद्ध और दर्शनबुद्ध (४२१)।