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चतुर्थ स्थान प्रथम उद्देश
३. विवेक — सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न मानना ।
४. व्युत्सर्ग— शरीर और उपधि से ममत्व का त्याग कर पूर्ण निःसंग होना ( ७० ) ।
७१ - सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा खंती, मुत्ती, अज्जवे,
मद्दवे ।
शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं, जैसे—
१. क्षान्ति (क्षमा), २. मुक्ति (निर्लोभता ), ३. आर्जव (सरलता), ४. मार्दव (मृदुता) (७१)।
७२ – सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा— अणंतवत्तियाणुप्पेहा, विप्परिणामाणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अवायाणुप्पेहा ।
शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही गई हैं, जैसे
१. अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा— संसार में परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना ।
२. विपरिणामानुप्रेक्षा — वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार करना ।
३. अशुभानुप्रेक्षा— संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार करना । ४. अपायानुप्रेक्षा — राग-द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना ( ७२ ) ।
देवस्थिति सूत्र
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७३ – चउव्विहा देवाण ठिती पण्णत्ता, तं जहा— देवे णाममेगे, देवसिणाते णाममेगे, देवपुरोहिते णाममेगे, देवपज्जलणे णाममेगे ।
देवों की स्थिति (पद-मर्यादा) चार प्रकार की कही गई है, जैसे—
१. देव सामान्य देव ।
२. देव - स्नातक — प्रधान देव अथवा मंत्री - स्थानीय देव ।
३. देव-पुरोहित — शान्तिकर्म करने वाले पुरोहित स्थानीय देव ।
४. देव-प्रज्वलन— मंगल - पाठक चारण- स्थानीय मागध देव (७३)।
संवास - सूत्र
७४— चउव्विहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा — देवे णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, देवे णाममे छवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे छवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा ।
संवास चार प्रकार का कहा गया है, जैसे—
१. कोई देव देवी के साथ संवास (सम्भोग) करता है ।
२. कोई देव छवि (औदारिक शरीरी मनुष्यनी या तिर्यंचनी) के साथ संवास करता है ।
३. कोई छवि (मनुष्य या तिर्यंच) देवी के साथ संवास करता है ।
४. कोई छवि (मनुष्य या तिर्यंच) छवी (मनुष्यनी या तिर्यंचनी) के साथ संवास करता है (७४) ।