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स्थानाङ्गसूत्रम् विवेचन- यति-धर्म नाम से प्रसिद्ध दश धर्मों का निर्देश यहाँ पर दो सूत्रों में किया गया है और दशवें स्थान में उनका वर्णन श्रमणधर्म के रूप में किया गया है। दोनों ही स्थानों के क्रम में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र-वर्णित दश धर्मों के क्रम में तथा नामों में भी कुछ अन्तर है। जो इस प्रकार हैस्थानाङ्ग-सम्मत-दश श्रमण धर्म
तत्त्वार्थ सूत्रोक्त दशधर्म १. क्षान्ति
१. क्षमा २. मुक्ति
२. मार्दव आर्जव
आर्जव मार्दव
शौच लाघव
सत्य सत्य
६. संयम संयम
७. तप ८. तप
८. . त्याग ९. त्याग
९. आकिंचन्य १०. ब्रह्मचर्यवास
१०. ब्रह्मचर्य नाम और क्रम में किंचित् अन्तर होने पर भी अर्थ में कोई मौलिक अन्तर नहीं है।
३६- पंच ठाणाई समणेणं जाव (भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुड्याइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा. उक्खित्तचरए, णिक्खित्तचरए, अंतचरए, पंतचरए, लूहचरए।
.. श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं, जैसे
१. उत्क्षिप्तचरक- रांधने के पात्र में से पहले ही बाहर निकाला हुआ आहार ग्रहण करूंगा ऐसा अभिग्रह करने वाला मुनि।
२. निक्षिप्तचरक- यदि गृहस्थ रांधने के पात्र में से आहार दे तो मैं ग्रहण करूंगा, ऐसा अभिग्रह करने वाला मुनि।
३. अन्तचरक— गृहस्थ-परिवार के भोजन करने के पश्चात् बचा हुआ यदि अनुच्छिष्ट आहार मिले, तो मैं ग्रहण करूंगा, ऐसा अभिग्रह करने वाला मुनि।
४. प्रान्तचरक- तुच्छ या वासी आहार लेने का अभिग्रह करने वाला मुनि।
५. रूक्षचरक- सर्व प्रकार के रसों से रहित रूखे आहार के ग्रहण करने का अभिग्रह करने वाला मुनि (३६)।
३७– पंच ठाणाइं जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहाअण्णातचरए, अण्णइलायचरए, मोणचरए, संसट्ठकप्पिए, तजातसंसट्ठकप्पिए॥