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पंचम स्थान—प्रथम उद्देश
४. आचार्य और उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित साधुओं की वैयावृत्त्य कराने के लिए सम्यक् प्रकार से सावधान रहें।
५. आचार्य और उपाध्याय गण को पूछकर अन्यत्र विहार करें, बिना पूछे न करें।
उक्त पांच स्थानों का पालन करने वाले आचार्य या उपाध्याय के गण में कभी कलह उत्पन्न नहीं होता है (४९) ।
निषद्या- सूत्र
५० पंच णिसिज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा— उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता, पलियंका, अद्धपलियंका ।
निषद्या पांच प्रकार की कही गई है, जैसे—
१. उत्कुटुका - निषद्या— उत्कुटासन से बैठना ( उकड़ू बैठना) ।
२. गोदोहिका-निषद्या-— गाय को दुहने के आसन से बैठना ।
३. समपाद-पुता - निषद्या- दोनों पैरों और पुतों (पुठ्ठों) से भूमि का स्पर्श करके बैठना ।
४. पर्यंका - निषद्या— पद्मासन से बैठना ।
५: अर्ध- पर्यंका - निषद्या— अर्धपद्मासन से बैठना (५०) ।
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आर्जवस्थान-सूत्र
५१ - पंच अज्जवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा— साधुअज्जवं साधुमद्दवं, साधुलाघवं साधुखंती, साधुत्त ।
पांच आर्जव स्थान कहे गये हैं, जैसे
१. साधु - आर्जव मायाचार का सर्वथा निग्रह करना ।
२. साधु- मार्दव — अभिमान का सर्वथा निग्रह करना ।
३. साधु - लाघव — गौरव का सर्वथा निग्रह करना ।
४. साधु- क्षान्ति-— क्रोध का सर्वथा निग्रह करना ।
५. साधु-मुक्ति- लोभ का सर्वथा निग्रह करना (५१) ।
विवेचन—– राग-द्वेष की वक्रता से रहित सामायिक संयमी साधु के कर्म या भाव को आर्जव अर्थात् संवर कहते हैं। संवर अर्थात् अशुभ कर्मों के आस्रव को रोकने के पांच कारणों का प्राकृत सूत्र में निरूपण किया गया है। इनमें से लोभकषाय के निग्रह से लाघव और मुक्ति ये दो संवर होते हैं। शेष तीन संवर तीन कषायों के निग्रह से उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक आर्जवस्थान के साथ साधु-पद लगाने का अर्थ है कि यदि ये पांचों कारण सम्यग्दर्शन पूर्वक होते हैं, तो वे संवर के कारण हैं, अन्यथा नहीं। 'साधु' शब्द यहाँ सम्यक् या समीचीन अर्थ का वाचक समझना चाहिए।