Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अष्टम स्थान
एकलविहार-प्रतिमा-सूत्र
१- अहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, तं जहा सड्डी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिमं, अप्पाधिगरणे, धितिमं, वीरियसंपण्णे।
आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार एकल विहार प्रतिमा को स्वीकार कर विहार करने के योग्य होता है, जैसे१. श्रद्धावान् पुरुष, २. सत्यवादी पुरुष, ३. मेधावी पुरुष, ४. बहुश्रुत पुरुष, ५. शक्तिमान् पुरुष, ६. अल्पाधिकरण पुरुष, ७. धृतिमान् पुरुष, ८. वीर्यसम्पन्न पुरुष (१)।
विवेचन— संघ की आज्ञा लेकर अकेला विहार करते हुए आत्म-साधना करने को ‘एकल विहार प्रतिमा' कहते हैं। जैन परम्परा के अनुसार साधु तीन अवस्थाओं में अकेला विचर सकता है
१. एकल विहार प्रतिमा स्वीकार करने पर। २. जिनकल्प स्वीकार करने पर। ३. मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमाएं स्वीकार करने पर। इनमें से प्रस्तुत सूत्र में एकल-विहार-प्रतिमा स्वीकार करने की योग्यता के आठ अंग बताये गये हैं१. श्रद्धावान्– साधक को अपने कर्तव्यों के प्रति श्रद्धा या आस्था वाला होना आवश्यक है। ऐसे व्यक्ति को
मेरु के समान अचल सम्यक्त्वी और दृढ़ चारित्रवान् होना चाहिए। २. सत्यवादी— उसे सत्यवादी एवं अर्हत्प्ररूपित तत्त्वभाषी होना चाहिए। ३. मेधावी- श्रुतग्रहण की प्रखर बुद्धि से युक्त होना आवश्यक है। ४. बहुश्रुत— नौ-दश पूर्व का ज्ञाता होना चाहिए। ५. शक्तिमान्– तपस्या, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल इन पांच तुलाओं से अपने को तोल लेता है, उसे
शक्तिमान् कहते हैं। छह मास तक भोजन न मिलने पर भी जो भूख से पराजित न हो, ऐसा अभ्यास तपस्यातुला है। भय और निद्रा को जीतने का अभ्यास सत्त्वतुला है। इसके लिए उसे सब साधुओं के सो जाने पर क्रमशः उपाश्रय के भीतर, दूसरी वार उपाश्रय के बाहर, तीसरी वार किसी चौराहे पर, चौथी वार सूने घर में और पांचवीं वार श्मशान में रातभर कायोत्सर्ग करना पड़ता है। तीसरी तुला सूत्र-भावना है। वह सूत्र के परावर्तन से उच्छ्वास, घड़ी, मुहूर्त आदि काल के परिमाण का विना सूर्य-गति आदि के जानने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। एकत्वतुला के द्वारा वह आत्मा को शरीर से भिन्न अखण्ड चैतन्यपिण्ड का ज्ञाता हो जाता है। बलतुला के द्वारा वह मानसिक बल को इतना विकसित कर लेता है कि भयंकर उपसर्ग आने पर भी वह उनसे चलायमान नहीं होता है। जो साधक जिनकल्प-प्रतिमा स्वीकार करता है, उसके लिए उक्त पाँचों तुलाओं में उत्तीर्ण होना आवश्यक है।