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स्थानाङ्गसूत्रम्
८. संग्रह-परिज्ञा— संघ-व्यवस्था की निपुणता (१५)। महानिधि-सूत्र
१६– एगेमेगे णं महाणिही अट्ठचक्कवालपतिट्ठाणे अट्ठट्ठजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते।
चक्रवर्ती की प्रत्येक महानिधि आठ-आठ पहियों पर आधारित है और आठ-आठ योजन ऊंची कही गई है (१६)। समिति-सूत्र
१७– अट्ठ समितीओ पण्णत्ताओ, तं जहा इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिती, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणियासमिती, मणसमिती, वइसमिती, कायसमिती।
समितियाँ आठ कही गई हैं, जैसे१. ईर्यासमिति, २. भाषासमिति, ३. एषणासमिति, ४. आदान-भाण्ड-अमत्र-निक्षेपणासमिति, ५. उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापनासमिति, ६. मनःसमिति,
७. वचनसमिति, ८. कायसमिति (१७)। आलोचना-सूत्र
१८- अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा—आयारवं, आधारवं, ववहारवं, ओवीलए, पकुव्वए, अपरिस्साई, णिज्जावए, अवायदंसी।'
आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है, जैसे१. आचारवान्– जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों से सम्पन्न हो। २. आधारवान्— जो आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोचना किये जाने वाले समस्त अतिचारों को जानने __ वाला हो। ३. व्यवहारवान्– आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत इन पाँच व्यवहारों का ज्ञाता हो। . ४. अपव्रीडक– आलोचना करने वाले व्यक्ति में वह लाज या संकोच से मुक्त होकर यथार्थ आलोचना कर __ सके, ऐसा साहस उत्पन्न करने वाला हो। ५. प्रकारी- आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला हो। ६. अपरिश्रावी- आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो। ७. निर्यापक- बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके, ऐसा सहयोग देने वाला हो। ८. अपायदर्शी- प्रायश्चित्त-भंग से तथा यथार्थ आलोचना न करने से होने वाले दोषों को दिखाने वाला ___ हो (१८)।
१९- अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोइत्तए, तं जहा—जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, दंसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, खते, दंते।