Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
तोड़े और अंगद (बाजूबन्द) पहने हुए रहता है। उसके कानों में चंचल तथा कपोल तक कानों को घिसने वाले कुण्डल होते हैं। वह विचित्र वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं और सेहरों वाला मांगलिक एवं उत्तम वस्त्रों को पहने हुए होता है, वह मांगलिक, प्रवर, सुगन्धित पुष्प और विलेपन को धारण किए हुए होता है। उसका शरीर तेजस्वी होता है, वह लम्बी लटकती हुई मालाओं को धारण किये रहता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात (शरीर की बनावट), दिव्य संस्थान (शरीर की आकृति) और दिव्य ऋद्धि से युक्त होता है। वह दिव्यधुति, दिव्यप्रभा, दिव्यकान्ति, दिव्य अर्चि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित करता है, प्रभासित करता है, वह नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादकों के द्वारा जोर से बजाये गये वादित्र, तंत्र तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगों को भोगता हुआ रहता है।
उसकी वहाँ जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद होती है. वह भी उसका आदर करती है. उसे स्वामी के रूप में मानती है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के निमंत्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पांच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं—'देव! और अधिक बोलिए, और अधिक बोलिए।'
पुनः वह देव आयुक्षय के, भवक्षय के और स्थितिक्षय के अनन्तर देवलोक से च्युत होकर यहां मनुष्यलोक में, मनुष्यभव में सम्पन्न, दीप्त, विस्तीर्ण और विपुल शयन, आसन यान और वाहनवाले, बहुंधन, बहु सुवर्ण और बहु चांदी वाले, आयोग और प्रयोग (लेनदेन) में संप्रयुक्त, प्रचुर भक्त-पान का त्याग करनेवाले, अनेक दासी-दास, गाय-भैंस, भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित, ऐसे उच्च कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है।
वहाँ वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस और सुस्पर्श वाला होता है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन के लिए गम्य होता है। वह उच्च स्वर, प्रखर स्वर, कान्त स्वर, प्रिय स्वर, मनोज्ञ स्वर, रुचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है।
वहाँ पर उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी के रूप में मानती है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। वह जब भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पांच मनुष्य बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं—'आर्यपुत्र ! और अधिक बोलिए, और अधिक बोलिए।' (इस प्रकार उसे और अधिक बोलने के लिए ससम्मान प्रेरणा की जाती है।) संवर-असंवर-सूत्र
११- अट्टविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा सोइंदियसंवरे, (चक्खिदियसंवरे, घाणिंदियसंवरे, जिभिदियसंवरे), फासिंदियसंवरे, मणसंवरे, वइसंवरे, कायसंवरे।
संवर आठ प्रकार का कहा गया है, जैसे१. श्रोत्रेन्द्रिय-संवर, २. चक्षुरिन्द्रिय-संवर, ३. घ्राणेन्द्रिय-संवर, ४. रसनेन्द्रिय-संवर, ५. स्पर्शनेन्द्रिय-संवर, ६. मनः-संवर, ७. वचन-संवर, ८. काय-संवर (११)।
१२- अट्टविहे असंवरे पण्णत्ते, तं जहा सोतिंदियअसंवरे, चक्खिदियअसंवरे, घाणिंदियअसंवरे, जिभिदियअसंवरे, फासिंदियअसंवरे, मणअसंवरे, वइअसंवरे, कायअसंवरे।
असंवर आठ प्रकार का कहा गया है, जैसे१. श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, २. चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, ३. घ्राणेन्द्रिय-असंवर, ४. रसनेन्द्रिय-असंवर.