Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 763
________________ ६९६ स्थानाङ्गसूत्रम् २. पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय कोलाहलपूर्ण वातावरण में अपने दोष की आलोचना करना। . (८) १. बहुजन दोष— एक के पास आलोचना कर शंकाशील होकर फिर उसी दोष की दूसरे के पास जाकर आलोचना करना। २. बहुत जनों के एकत्रित होने पर उनके सामने आलोचना करना। (९) १. अव्यक्त दोष- अगीतार्थ साधु के पास दोषों की आलोचना करना। २. दोषों की अव्यक्त रूप से आलोचना करना। (१०) १. तत्सेवी दोष— आलोचना देने वाले जिन दोषों को स्वयं करते हैं, उनके पास जाकर उन दोषों की आलोचना करना। अथवा— मेरा दोष इसके समान है, इसे जो प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, वही मेरे लिए भी उपयुक्त है, ऐसा सोचकर अपने दोषों का संवरण करना। २. जो व्यक्ति अपने समान ही दोषों से युक्त है, उसको अपने दोष का निवेदन करना, जिससे कि वह बड़ा प्रायश्चित्त न दे। अथवा- जिस दोष का प्रकाशन किया है, उसका पुनः सेवन करना। ७१– दसहि ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोएत्तए, तं जहा—जाइसंपण्णे, कुलसंपण्णे, (विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, दंसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे), खंते, दंते, अमायी, अपच्छाणुतावी। दश स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के योग्य होता है, जैसे१. जातिसम्पन्न, २. कुलसम्पन्न, ३. विनयसम्पन्न, ४. ज्ञानसम्पन्न, ५. दर्शनसम्पन्न, ६. चारित्रसम्पन्न, ७. क्षान्त (क्षमासम्पन्न), ८. दान्त (इन्द्रिय-जयी), ९. अमायावी (मायाचार-रहित), १०.अपश्चात्तापी (पीछे पश्चात्ताप नहीं करने वाला) (७१)। ७२- दसहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा आयारवं, आहारवं, ववहारवं, ओवीलए, पकुव्वए, अपरिस्साई, णिज्जावए, अवायदंसी, पियधम्मे, दढधम्मे। दश स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है, जैसे१. आचारवान्— जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पंच आचारों से युक्त हो। २. आधारवान्– आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोचना किये जाने वाले दोषों का जानने वाला हों। ३. व्यवहारवान्— आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत इन पांच व्यवहारों का जानने वाला हो। ४. अपव्रीडक- आलोचना करने वाले की लज्जा या संकोच छुड़ाकर उसमें आलोचना करने का साहस ___ उत्पन्न करने वाला हो। ५. प्रकारी— अपराधी के आलोचना करने पर उसकी शुद्धि करने वाला हो। ६. अपरिश्रावी— आलोचना करने वाले के दोष दूसरों के सामने प्रकट करने वाला न हो। ७. निर्यापक- बड़े प्रायश्चित्त को भी निर्वाह कर सके, ऐसा सहयोग देने वाला हो। ८. अपायदर्शी- सम्यक् आलोचना न करने के अपायों-दुष्फलों को बताने वाला हो। ९. प्रियधर्मा— धर्म से प्रेम रखने वाला हो। १०. दृढ़धर्मा- आपत्तिकाल में भी धर्म में दृढ़ रहने वाला हो (७२)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827