Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दशम स्थान
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प्रायश्चित्त-सूत्र
७३– दसविधे पायच्छित्ते, तं जहा—आलोयणारिहे, (पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे), अणवठ्ठप्पारिहे, पारंचियारिहे।
प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है, जैसे१. आलोचना के योग्य- गुरु के सामने निवेदन करने से ही जिसकी शुद्धि हो। २. प्रतिक्रमण के योग्य— 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' इस प्रकार के उच्चारण से जिस दोष की शुद्धि हो। ३. तदुभय के योग्य- जिसकी शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से हो। ४. विवेक के योग्य— जिसकी शुद्धि ग्रहण किये गये अशुद्ध भक्त-पानादि के त्याग से हो। ५. व्युत्सर्ग के योग्य-जिस दोष की शुद्धि कायोत्सर्ग से हो।। ६. तप के योग्य-जिस दोष की शुद्धि अनशनादि तप के द्वारा हो। ७. छेद के योग्य-जिस दोष की शुद्धि दीक्षा-पर्याय के छेद से हो। ८. मूल के योग्य- जिस दोष की शुद्धि पुनः दीक्षा देने से हो।।
९. अनवस्थाप्य के योग्य- जिस दोष की शुद्धि तपस्यापूर्वक पुनः दीक्षा देने से हो। .. १०. पारांचिक के योग्य- भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक एक बार संघ से पृथक् कर पुनः दीक्षा देने से जिस
दोष की शुद्धि हो (७३)। मिथ्यात्व-सूत्र
७४- दसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, तं जहा–अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, उम्मग्गे मग्गसण्णा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा।
मिथ्यात्व दश प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अधर्म को धर्म मानना, २. धर्म को अधर्म मानना, ३. उन्मार्ग को सुमार्ग मानना, ४. सुमार्ग को उन्मार्ग मानना, ५. अजीवों को जीव मानना, ६. जीवों को अजीव मानना, ७. असाधुओं को साधु मानना, ८. साधुओं को असाधु मानना,
९. अमुक्तों को मुक्त मानना, १०. मुक्तों को अमुक्त मानना (७४)। तीर्थंकर-सूत्र
७५— चंदप्पभे णं अरहा दस पुव्वसतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे (बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुक्ख) प्पहीणे।
अर्हन् चन्द्रप्रभ दश लाख पूर्व वर्ष की पूर्ण आयु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और समस्त दुःखों से रहित हुए (७५)।