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स्थानाङ्गसूत्रम्
माणुस्सर भवे जाई इमाई कुलाई भवंति — अड्डाई ( दित्ताइं वित्थिण्ण- विउल-भवण-सयणासणजाण - वाहणाई 'बहुधण - बहुजायरूव-रययाई' आओगपओग-संपउत्ताइं विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणाई बहुदासी - दास-गो-महिस - गवेलय - प्पभूयाइं ) बहुजणस्स अपरिभूताइं, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाति । से णं तत्थ पुमे भवति सुरूवे सुवण्णे सुगंधे सुरसे सुफासे इट्ठे कंते ( पिए मणुण्णे) मणामे अहीणस्सरे (अदीणस्सरे इट्ठस्सरे कंतस्सरे पियस्सरे मणुण्णस्सरे) मणामस्सरे आदेज्जवयणे पच्चायाते ।
जावि य से तत्थ बाहिरब्धंतरिया परिसा भवति, सावि य णं आढाति (परिजाणाति महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चेव अब्भुति ) - बहु अज्जउत्ते ! भासउ - भासउ ।
आठ कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्हा करता है, व्यावृत्ति करता है, विशुद्धि करता है, 'मैं पुनः वैसा नहीं करूंगा' ऐसा कहने को उद्यत होता है और यथायोग्य प्रायश्चित्त तथा तपः कर्म स्वीकार करता है। वे आठ कारण इस प्रकार हैं
१. मायावी का यह लोक गर्हित होता है।
२. उपपात गर्हित होता है।
३. आजाति — जन्म गर्हित होता है।
४. जो मायावी एक भी मायाचार करके न आलोचना करता है, न प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न गर्हा करता है, न व्यावृत्ति करता है, न विशुद्धि करता है, न 'पुनः वैसा नहीं करूंगा' ऐसा कहने को उद्यत होता है, न यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपःकर्म को स्वीकार करता है, उसके आराधना नहीं होती है।
५.
मायावी एक भी बार मायाचार करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्हा करता है, व्यावृत्ति करता है, विशुद्धि करता है, 'मैं पुनः वैसा नहीं करूंगा', ऐसा कहने को उद्यत होता है, यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपःकर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है ।
६. जो मायावी बहुत मायाचार करके न उसकी आलोचना करता है, न प्रतिक्रमण करता है, न निन्दा करता है, न गर्हा करता है, न व्यावृत्ति करता है, न विशुद्धि करता है, न 'मैं पुनः वैसा नहीं करूंगा' ऐसा कहने को उद्यत होता है, न यथायोग्य प्रायश्चित्त और तप:कर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना नहीं होती है।
७. जो मायावी बहुत मायाचार करके उसकी आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्हा करता है, व्यावृत्ति करता है, विशुद्धि करता है, 'मैं पुनः वैसा नहीं करूंगा', ऐसा कहने को उद्यत होता है, यथायोग्य प्रायश्चित्त और तप:कर्म स्वीकार करता है, उसके आराधना होती है।
८. मेरे आचार्य या उपाध्याय को अतिशायी ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो तो वे मुझे देख कर ऐसा न जान लेवें कि यह मायावी है ?
अकरणीय कार्य करने के बाद मायावी उसी प्रकार भीतर ही भीतर जलता है, जैसे लोहे को गलाने की भट्टी, ताम्बे को गलाने की भट्टी, त्रपु (जस्ता) को गलाने की भट्टी, शीशे को गलाने की भट्टी, चाँदी को गलाने की भट्टी, सोने को गलाने की भट्टी, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, भूसे की अग्नि, नलाग्नि ( नरकट की अग्नि ), पत्तों