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स्थानाङ्गसूत्रम्
श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए नौ कोटि परिशुद्ध भिक्षा का निरूपण किया है, जैसे—
१. आहार निष्पादनार्थ गेहूँ आदि सचित्त वस्तु का घात नहीं करता है।
२. आहार निष्पादनार्थ गेहूँ आदि सचित्त वस्तु का घात नहीं कराता है।
३. आहार निष्पादनार्थ गेहूँ आदि सचित्त वस्तु के घात की अनुमोदना नहीं करता है ।
४. आहार स्वयं नहीं पकाता है।
५. आहार दूसरों से नहीं पकवाता है।
६. आहार पकाने वालों की अनुमोदना नहीं करता है।
७. आहार को स्वयं नहीं खरीदता है।
८. आहार को दूसरों से नहीं खरीदवाता है।
९. आहार मोल लेने वाले की अनुमोदना नहीं करता है (३०) ।
देव-सूत्र
३१
- ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो णव अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज वरुण की नौ अग्रमहिषियां कही गई हैं (३१) । ३२ - ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अग्गमहिसीणं णव पलिओवमांई ठिती पण्णत्ता । देवेन्द्र देवराज ईशान की अग्रमहिषियों की स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है (३२) । ३३ - ईसाणे कप्पे उक्कोसेणं देवीणं णव पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता । ईशानकल्प में देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की कही गई है ( ३३ ) 1 ३४ णव देवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा— संग्रहणी - गाथा
सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥ १॥
देव (लोकान्तिकदेव) निकाय नौ कहे गये हैं, जैसे
१. सारस्वत, २. आदित्य, ३. वह्नि, ४. वरुण, ५. गर्दतोय, ६. तुषित, ७. अव्याबाध, ८. अग्न्यर्च, ९. रिष्ट (३४) ।
३५ – अव्वाबाहाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता ।
अव्याबाध देव स्वामी रूप में नौ हैं और उनका नौ सौ देवों का परिवार कहा गया है (३५) ।
३६ - ( अग्गिच्चाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता ) ।
(अग्न्यर्च देव स्वामी रूप में नौ हैं और उनके नौ सौ देवों का परिवार कहा गया है (३६) ।) ३७– (रिट्ठाणं देवाणं णव देवा णव देवसया पण्णत्ता ) ।