Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
४. दुर्धर-धारणामति- दुर्धर-गहन पदार्थ की धारणा रखने वाली मति। ५. अनिश्रित-धारणामति— अनिश्रित अवाय से निर्णीत पदार्थ की धारणा रखने वाली मति।
६. असंदिग्ध-धारणामति— असंदिग्ध अवाय से निर्णीत पदार्थ की धारणा रखने वाली मति (६४)। तपः-सूत्र
६५- छव्विहे बाहिरए तवे पण्णत्ते, तं जहा—अणसणं, ओमोदरिया, भिक्खायरिया, रसपरिच्चाए, कायकिलेसो, पडिसंलीणता।
बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अनशन, २. अबमोदरिका, ३. भिक्षाचर्या, ४. रसपरित्याग, ५. कायक्लेश, ६. प्रतिसंलीनता (६५)।
६६– छव्हेि अब्भंतरिए तवे पण्णत्ते, तं जहा—पायच्छित्तं, विणओ, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउस्सग्गो।
आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान, ६. व्युत्सर्ग (६६)। विवाद-सूत्र
६७– छव्विहे विवादे पण्णत्ते, तं जहा—ओसक्कइत्ता, उस्सक्कइत्ता, अणुलोमइत्ता, पडिलोमइत्ता, भइत्ता, भेलइत्ता।
विवाद-शास्त्रार्थ छह प्रकार का कहा गया है, जैसे१. ओसक्कइत्ता— वादी के तर्क का उत्तर ध्यान में न आने पर समय बिताने के लिए प्रकृत विषय से हट जाना। २. उस्सक्कइत्ता- शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होते ही वादी को पराजित करने के लिए आगे आना। ३. अनेलोमइत्ता—विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बना लेना अथवा प्रतिवादी के पक्ष का एक बार समर्थन कर उसे अपने अनुकूल कर लेना। ४. पडिलोमइत्ता— शास्त्रार्थ की पूर्ण तैयारी होने पर विवादाध्यक्ष तथा प्रतिपक्षी की उपेक्षा कर देना। ५. भइत्ता—विवादाध्यक्ष की सेवा कर उसे अपने पक्ष में कर लेना। ६. भेलइत्ता— निर्णायकों में अपने समर्थकों का बहुमत कर लेना (६७)।
विवेचन- वाद-विवाद या शास्त्रार्थ के मूल में चार अंग होते हैं—वादी—पूर्वपक्ष स्थापन करने वाला, प्रतिवादी—वादी के पक्ष का निराकरण कर अपना पक्ष सिद्ध करने वाला, अध्यक्ष वादी-प्रतिवादी के द्वारा मनोनीत और वाद-विवाद के समय कलह न होने देकर शान्ति कायम रखने वाला और सभ्य-निर्णायक। किन्तु यहाँ पर वास्तविक या यथार्थ शास्त्रार्थ से हट करके प्रतिवादी को हराने की भावना से उसके छह भेद किये गये हैं, यह उक्त छहों भेदों के स्वरूप से ही सिद्ध है कि जिस किसी भी प्रकार से वादी को हराना ही अभीष्ट है। जिस विवाद में वादी को हराने की ही भावना रहती है वह शास्त्रार्थ तत्त्व-निर्णायक न हो कर विजिगीषु वाद कहलाता है।