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षष्ठ स्थान
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५. वीसवाँ पर्व- फाल्गुन शुक्लपक्ष में।
६. चौवीसवाँ पर्व- वैशाख शुक्लपक्ष में (९७)। अर्थावग्रह-सूत्र
९८ - आभिणिबोहियणाणस्स णं छव्विहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते, तं जहा—सोइंदियत्थोग्गहे, (चक्खिदियत्थोग्गहे, घाणिंदियत्थोग्गहे, जिब्भिदियत्थोग्गहे, फासिंदियत्थोग्गहे), णोइंदियत्थोग्गहे।
आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) ज्ञान का अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है, जैसे१. श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, २. चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, ३.घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ४. रसनेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ५. स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह, ६. नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह (९८)।
विवेचन– अवग्रह के दो भेद हैं—व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। उपकरणेन्द्रिय और शब्दादि ग्राह्य विषय के सम्बन्ध को व्यंजन कहते है। दोनों का सम्बन्ध होने पर अव्यक्त ज्ञान की किंचित् मात्रा उत्पन्न होती है। उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं । यह चक्षु और मन से न होकर चार इन्द्रियों द्वारा ही होता है, क्योंकि चार इन्द्रियों का ही अपने विषय के साथ संयोग होता है, चक्षु और मन का नहीं। अतएव व्यंजनावग्रह के चार प्रकार हैं। इसका काल असंख्यात समय है। व्यंजनावग्रह के पश्चात् अर्थावग्रह उत्पन्न होता है। उसका काल एक समय है। वह वस्तु के सामान्य धर्म को जानता है। इसके छह भेद यहाँ प्रतिपादित किए गए हैं। अवधिज्ञान-सूत्र
९९- छव्विहे ओहिणाणे पण्णत्ते, तं जहा— आणुगामिए, अणाणुगामिए, वड्डमाणए, हायमाणए, पडिवाती, अपडिवाती। ___ अवधिज्ञान छह प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपाती, ६. अप्रतिपाती (९९)।
विवेचन- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अवधि, सीमा या मर्यादा को लिए हुए रूपी पदार्थो को इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसके छह भेद प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं। उनका विवरण इस प्रकार है
१. आनुगामिक- जो ज्ञान नेत्र की तरह अपने स्वामी का अनुगमन करता है, अर्थात् स्वामी (अवधिज्ञानी) जहाँ भी जावे उसके साथ रहता है, उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान का स्वामी जहां भी जाता है, वह अवधिज्ञान के विषयभूत पदार्थों को जानता है।
२. अनानुगामिक— जो ज्ञान अपने स्वामी का अनुगमन नहीं करता, किन्तु जिस स्थान पर उत्पन्न होता है, उसी स्थान पर स्वामी के रहने पर अपने विषयभूत पदार्थों को जानता है, उसे अनानुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं।
३. वर्धमान- जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद विशुद्धि की वृद्धि से बढ़ता रहता है, वह वर्धमान कहलाता है।
४. हीयमान— जो अवधिज्ञान जितने क्षेत्र को जानने वाला उत्पन्न होता है, उसके पश्चात् संक्लेश की वृद्धि से