Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
सप्तम स्थान
५५५
अहावरे सत्तमे विभंगणाणे—जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजति। से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं पासई सुहुमेणं वायुकाएणं फुडं पोग्गलकायं एयंतं वेयंतं चलंतं खुब्भंतं फंदंतं घटुंतं उदीरेंतं तं तं भावं परिणमंतं। तस्स णं एवं भवति–अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे सव्वमिणं जीवा। संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु जीवा चेव, अजीवा चेव। जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। तस्स णं इमे चत्तारि जीवणिकाया णो सम्ममुवगता भवंति, तं जहा—पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया। इच्चेतेहिं चउहिं जीवणिकाएहिं मिच्छादंडं पवत्तेइ सत्तमे विभंगणाणं।
विभङ्गज्ञान (कुअवधिज्ञान) सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. एकदिग्लोकाभिगम— एक दिशा में ही सम्पूर्ण लोक को जानने वाला। २. पंचदिग्लोकाभिगम— पांचों दिशाओं में ही सर्वलोक को जानने वाला। ३. जीव को कर्मावृत नहीं, किन्तु क्रियावरण मानने वाला। ४. मुदग्गजीव-जीव के शरीर को मुदग्ग-(पुद्गल-) निर्मित ही मानने वाला। ५. अमुदग्गजीव-जीव के शरीर को पुद्गल-निर्मित नहीं ही मानने वाला। ६. रूपी-जीव - जीव को रूपी ही मानने वाला। ७. यह सर्वजीव— इस सर्व दृश्यमान जगत् को जीव ही मानने वाला। उनमें यह पहला विभंगज्ञान है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से पूर्वदिशा को या पश्चिम दिशा को या दक्षिण दिशा को या उत्तर दिशा को या ऊर्ध्वदिशा को सौधर्मकल्प तक, इन पाँचों दिशाओं में से किसी एक दिशा को देखता है। उस समय उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—मुझे सातिशय ज्ञानदर्शन प्राप्त हुआ है। मैं इस एक दिशा में ही लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक पांचों दिशाओं में है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह पहला विभंगज्ञान है।
दूसरा विभंगज्ञान इस प्रकार है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से पूर्व दिशा को, पश्चिम दिशा को, दक्षिण दिशा को, उत्तर दिशा को और ऊर्ध्वदिशा को सौधर्मकल्प तक देखता है। उस समय उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—मुझे सातिशय (सम्पूर्ण) ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं पांचों दिशाओं में ही लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक एक ही दिशा में है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह दूसरा विभंगज्ञान है।
तीसरा विभंगज्ञान इस प्रकार है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, अदत्त-ग्रहण करते हुए, मैथुन-सेवन करते हुए, परिग्रह करते हुए और रात्रि-भोजन करते हुए देखता है, किन्तु उन कार्यों के द्वारा किये जाते हुए कर्मबन्ध को नहीं देखता, तब उसके मन में ऐसा विचार