Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
५. वाग्-विनय- वचन की अशुभ प्रवृत्ति रोकना, शुभ प्रवृत्ति में लगाना। ६. काय-विनय-काय की अशुभ प्रवृत्ति रोकना, शुभ प्रवृत्ति में लगाना। ७. लोकोपचार-विनय- लोक-व्यवहार के अनुकूल सब का यथायोग्य विनय करना (१३०)।
१३१- पसत्थमणविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा—अपावए, असावजे, अकिरिए, णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे।
प्रशस्त मनोविनय सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अपापक-मनोविनय- पाप-रहित निर्मल मनोवृत्ति रखना। २. असावद्य-मनोविनय- सावध, गर्हित कार्य करने का विचार न करना। ३. अक्रिय-मनोविनय- मन को कायिकी, अधिकरणिकी आदि क्रियाओं में नहीं लगाना। ४. निरुपक्लेश-मनोविनय-मन को क्लेश, शोक आदि में प्रवृत्त न करना। ५. अनास्रवकर-मनोविनय- मन को कर्मों का आस्रव कराने वाले हिंसादि पापों में नहीं लगाना। ६. अक्षयिकर-मनोविनय- मन को प्राणियों की पीड़ा करने वाले कार्यों में नहीं लगाना। ७. अभूताभिशंकन-मनोविनय- मन को दूसरे जीवों को भय या शंका आदि उत्पन्न करने वाले कार्यों __ में नहीं लगाना (१३१)।
१३२- अपसत्थमणविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा—पावए, सावजे, सकिरिए, सउवक्केसे, अण्हयकरे, छविकरे, भूताभिसंकणे।
अप्रशस्त मनोविनय सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. पापक-अप्रशस्त मनोविनय-पाप कार्यों को करने का चिन्तन करना। २. सावध अप्रशस्त मनोविनय— गर्हित, लोक-निन्दित कार्यों को करने का चिन्तन करना। ३. सक्रिय अप्रशस्त मनोविनय- कायिकी आदि पापक्रियाओं के करने का चिन्तन करना। ४. सोपक्लेश अप्रशस्त मनोविनय— क्लेश, शोक आदि में मन को लगाना। ५. आस्रवकर अप्रशस्त मनोविनय- कर्मों का आस्रव कराने वाले कार्यों में मन को लगाना। ६. क्षयिकर अप्रशस्त मनोविनय-प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने वाले कार्यों में मन को लगाना। ७. भूताभिशंकन अप्रशस्त मनोविनय- दूसरे जीवों को भय, शंका आदि उत्पन्न करने वाले कार्यों में
मन को लगाना (१३२)
१३३– पसत्थवइविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा—अपावए, असावजे, (अकिरिए, णिरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे), अभूताभिसकंणे।
प्रशस्त वाग्-विनय सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अपापक-वाग्-विनय-निष्पाप वचन बोलना। २. असावद्य-वाग्-विनय— निर्दोष वचन बोलना। ३. अक्रिय-वाग्-विनय- पाप-क्रिया-रहित वचन बोलना।