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सप्तम स्थान
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४. निरुपक्लेश-वाग्-विनय- क्लेश-रहित वचन बोलना। ५. अनास्रवकर-वाग्-विनय— कर्मों का आस्रव रोकने वाले वचन बोलना। ६. अक्षयिकर-वाग्-विनय-प्राणियों का विघात-कारक वचन न बोलना। ७. अभूताभिशंकन-वाग्-विनय- प्राणियों को भय शंकादि उत्पन्न करने वाले वचन न बोलना (१३३)।
१३४- अपसत्थवइविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा—पावए, (सावजे, सकिरिए, सउवक्केसे, अण्हयकरे, छविकरे), भूताभिसंकणे।
अप्रशस्त वाग्-विनय सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. पापक वाग्-विनय- पाप-युक्त वचन बोलना। २. सावध वाग्-विनय- सदोष वचन बोलना। ३. सक्रिय वाग्-विनय- पाप क्रिया करने वाले वचन बोलना। ४. सोपक्लेश वाग्-विनय— क्लेश-कारक वचन बोलना। ५. आस्रवकर वाग्-विनय— कर्मों का आस्रव करने वाले वचन बोलना। ६. क्षयिकर वाग्-विनय-प्राणियों का विघात-कारक वचन बोलना। ७. भूताभिशंकन वाग्-विनय- प्राणियों को भय-शंकादि उत्पन्न करने वाले वचन बोलना (१३४)।
१३५- पसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा—आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आउत्तं णिसीयणं, आउत्तं तुअट्टणं, आउत्तं उल्लंघणं, आउत्तं पल्लंघणं, आउत्तं सव्विदियजोगजुंजणता।
प्रशस्त काय-विनय सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. आयुक्त गमन— यतनापूर्वक चलना। २. आयुक्त स्थान- यतनापूर्वक खड़े होना, कायोत्सर्ग करना। ३. आयुक्त निषीदन– यतनापूर्वक बैठना। ४. आयुक्त त्वग्-वर्तन- यतनापूर्वक करवट बदलना, सोना। ५. आयुक्त उल्लंघन— यतनापूर्वक देहली आदि को लांघना। ६. आयुक्त प्रल्लंघन- यतनापूर्वक नाली आदि को पार करना। ७. आयुक्त सर्वेन्द्रिय योगयोजना– यतनापूर्वक सब इन्द्रियों का व्यापार करना (१३५)।
१३६- अपसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा–अणाउत्तं गमणं, (अणाउत्तं ठाणं, अणाउत्तं णिसीयणं, अणाउत्तं तुअट्ठणं, अणाउत्तं उल्लंघणं, अणाउत्तं पल्लंघणं), अणाउत्तं सव्विदियजोगजुंजणता।
अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा गया है, जैसे१. अनायुक्त गमन- अयतनापूर्वक चलना। २. अनायुक्त स्थान- अयतनापूर्वक खडे होना। ३. अनायुक्त निषीदन— अयतनापूर्वक बैठना।