Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
उत्पन्न होता है मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं ऐसा देख रहा हूँ कि जीव क्रिया से ही आवृत है, कर्म से नहीं। जो श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव क्रिया से आवृत्त नहीं हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह तीसरा विभंगज्ञान
चौथा विभंगज्ञान इस प्रकार है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से देवों को बाह्य (शरीर के अवगाढ क्षेत्र से बाहर) और आभ्यन्तर (शरीर के अवगाढ क्षेत्र के भीतर) पुद्गलों को ग्रहण कर विक्रिया करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, इनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्नभिन्न काल और विभिन्न देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं । यह देख कर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव पुद्गलों से ही बना हुआ है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव शरीर-पुद्गलों से बना हुआ नहीं हैं, जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह चौथा विभंगज्ञान है।
पांचवां विभंगज्ञान इस प्रकार है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न विभंगज्ञान से देवों को बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किए बिना उत्तर विक्रिया करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल उत्पन्न कर, उनका स्फोट कर, भिन्न-भिन्न काल और देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं। यह देखकर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव-शरीर पुद्गलों से बना हुआ है.। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं । यह पाँचवाँ विभंगज्ञान है।
छठा विभंगज्ञान इस प्रकार है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से देवों को बाह्य आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण किए बिना विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्न-भिन्न काल और देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं। यह देख कर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि जीव रूपी ही है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी हैं। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह छठा विभंगज्ञान है।
सातवाँ विभंगज्ञान इस प्रकार है
जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से सूक्ष्म (मन्द) वायु के स्पर्श से पुद्गल काय को कम्पित होते हुए, विशेष रूप से कम्पित होते हुए, चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पन्दित होते हुए, दूसरे पदार्थों का स्पर्श करते हुए, दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए और नाना प्रकार के पर्यायों में परिणत होते हुए देखता है । तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा हूँ कि ये सभी जीव ही जीव हैं, कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव भी हैं और अजीव भी हैं। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। उस विभंगज्ञानी को पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और