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स्थानाङ्गसूत्रम्
३. इत्वरिक-प्रतिक्रमण— दैवसिक-रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना। ४. यावत्कथिक-प्रतिक्रमण- मारणान्तिकी संलेखना के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण। ५. यत्किञ्चिमिथ्यादुष्कृत-प्रतिक्रमण- साधारण दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहकर पश्चात्ताप प्रकट करना।
६. स्वप्नान्तिक-प्रतिक्रमण- दुःस्वप्नादि देखने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण (१२५)। नक्षत्र-सूत्र
१२६– कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते। कृत्तिका नक्षत्र छह तारावाला कहा गया है (१२६)। १२७– असिलेसाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते।
अश्लेषा नक्षत्र छह तारावाला कहा गया है (१२७)। पापकर्म-सूत्र
१२८- जीवा णं छट्ठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तं जहा—पुढविकाइयणिव्वत्तिए, (आउकाइयणिव्वत्तिए, तेउकाइयणिव्वत्तिए, वाउकाइयणिव्वत्तिए, वणस्सइकाइयणिव्वत्तिए), तसकायणिव्वत्तिए।।
एवं चिण-उवचिण-बंध-उदीर-वेय तह णिजरा चेव।
जीवों ने छह स्थान निर्वर्तित कर्मपुद्गलों को पापकर्म के रूप से भूतकाल में ग्रहण किया था, वर्तमान में ग्रहण करते हैं और भविष्य में ग्रहण करेंगे, यथा
१. पृथ्वीकायनिर्वर्तित, २. अप्कायनिवर्तित, ३. तेजस्कायनिवर्तित, ४. वायुकायनिर्वर्तित, ५. वनस्पतिकायनिर्वर्तित, ६. सकायनिर्वर्तित (१२८)।
इसी प्रकार सभी जीवों ने षट्काय-निर्वर्तित कर्मपुद्गलों का पापकर्म के रूप से उपचय, बन्ध, उदीरण, वेदन और निर्जरण भूतकाल में किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में करेंगे। पुद्गल-सूत्र
१२९- छप्पएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। छह प्रदेशी स्कन्ध अनन्त कहे गये हैं (१२९)। १३०- छप्पएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। छह प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त कहे गये हैं (१३०)। १३१- छसमयद्वितीया पोग्गला अणंता पण्णत्ता। छह समय की स्थिति वाले पुद्गल अनन्त कहे गये हैं (१३१)।