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पंचम स्थान द्वितीय उद्देश
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१. जघन्य वर्षावास— सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के दिन से लेकर कार्तिकी पूर्णमासी तक ७० दिन का होता
२. मध्यम वर्षावास— श्रावणकृष्णा प्रतिपदा से लेकर कार्तिकी पूर्णमासी तक चार मास या १२० दिन का होता है।
३. उत्कृष्ट वर्षावास— आषाढ़ से लेकर मगसिर तक छह मास का होता है।
प्रथम सूत्र के द्वारा प्रथम प्रावृष् में विहार का निषेध किया गया है और दूसरे सूत्र के द्वारा वर्षावास में विहार का निषेध किया गया है। दोनों सूत्रों की स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पर्युषणाकल्प को स्वीकार करने के पूर्व जो वर्षा का समय है उसे 'प्रथम प्रावृष्' पद से सूचित किया गया है। अतः प्रथम प्रावृट् का अर्थ आषाढ़ मास है। आषाढ़ मास में विहार करने का निषेध है। प्रावट का अर्थ वर्षाकाल लेने पर पूर्वप्रावट का अर्थ होगा—भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिकी पूर्णिमा का समय। इस समय में विहार का निषेध किया गया है। तीन ऋतुओं की गणना में 'वर्षा' एक ऋतु है। किन्तु छह ऋतुओं की गणना में उसके दो भेद हो जाते हैं, जिसके अनुसार श्रावण और भाद्रपद ये दो मास प्रावष् ऋतु में तथा आश्विन और कार्तिक ये दो मास वर्षा ऋतु में परिगणित होते हैं। इस प्रकार दोनों सूत्रों का सम्मिलित अर्थ है कि श्रावण से लेकर कार्तिक मास तक चार मासों में साधु और साध्वियों को विहार नहीं करना चाहिए। यह उत्सर्ग मार्ग है। हां, सूत्रोक्त कारण-विशेषों की अवस्था में विहार किया भी जा सकता है, यह अपवाद मार्ग है।
उत्कृष्ट वर्षावास के छह मास काल का अभिप्राय यह है कि यदि आषाढ़ के प्रारम्भ से ही पानी बरसने लगे और मगसिर मास तक भी बरसता रहे तो छह मास का उत्कृष्ट वर्षावास होता है।
वर्षाकाल में जल की वर्षा से असंख्य त्रस जीव पैदा हो जाते हैं, उस समय विहार करने पर छह काया के जीवों की विराधना होती है। इसके सिवाय अन्य भी दोष वर्षाकाल में विहार करने पर बताये गये हैं, जिन्हें संस्कृतटीका से जानना चाहिए। अनुद्घात्य-सूत्र
१०१- पंच अणुग्घातिया पण्णत्ता, तं जहा हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवेमाणे, रातीभोयणं भुंजेमाणे, सागारियपिंडं भुंजेमाणे, रायपिंडं भुंजेमाणे।
पांच अनुदात्य (गुरु-प्रायश्चित्त के योग्य) कहे गये हैं, जैसे१. हस्त-(मैथुन-) कर्म करने वाला। २. मैथुन की प्रतिसेवना (स्त्री-संभोग) करने वाला। ३. रात्रि-भोजन करने वाला। ४. सागारिक-(शय्यातर-) पिण्ड को खाने वाला। ५. राज-पिण्ड को खाने वाला (१०१)।
विवेचन— प्रायश्चित्त शास्त्र में दोष की शुद्धि के लिए दो प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं लघु-प्रायश्चित्त और गुरु-प्रायश्चित्त । लघु-प्रायश्चित्त को उद्घातिक और गुरु-प्रायश्चित्त को अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहते हैं। सूत्रोक्त पाँच स्थानों के सेवन करने वाले को अनुद्घात प्रायश्चित्त देने का विधान है, उसे किसी भी दशा में कम नहीं किया