Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
शौच-सूत्र
१९४– पंचविहे सोए पण्णत्ते, तं जहा—पुढविसोए, आउसोए, तेउसोए, मंतसोए, बंभसोए। शौच पांच प्रकार का कहा गया है, जैसे१. पृथ्वीशौच, २. जलशौच, ३. तेजःशौच, ४. मंत्रशौच, ५. ब्रह्मशौच (१९४)।
विवेचन- शुद्धि के साधन को शौच कहते हैं। मिट्टी, जल, अग्नि की राख आदि से शुद्धि की जाती है। अत: ये तीनों द्रव्य शौच हैं। मंत्र बोलकर मनःशुद्धि की जाती है और ब्रह्मचर्य को धारण करना ब्रह्मशौच कहलाता है। कहा भी है—'ब्रह्मचारी सदा शुचिः'। अर्थात् ब्रह्मचारी मनुष्य सदा पवित्र है। इस प्रकार मंत्रशौच और ब्रह्मशौच को भावशौच जानना चाहिए। छद्मस्थ-केवली-सूत्र
१९५- पंच ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं ण जाणति ण पासति, तं जहा—धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासस्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, परमाणुपोग्गलं।
एयाणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणति पासति, तं जहा धम्मत्थिकायं, (अधम्मत्थिकायं, आगासस्थिकायं जीवं असरीरपडिबद्धं), परमाणुपोग्गलं।
छद्मस्थ मनुष्य पांच स्थानों को सर्वथा न जानता है और न देखता है
१. धर्मास्तिकाय को, २. अधर्मास्तिकाय को, ३. आकाशास्तिकाय को, ४. शरीर-रहित जीव को, और ५. पुद्गल परमाणु को।
किन्तु जिनको सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो गया है, ऐसे अर्हन्त, जिन केवली इन पांचों को ही सर्वभाव से जानते-देखते हैं, जैसे
१. धर्मस्तिकाय को, २. अधर्मस्तिकाय को, ३. आकाशास्तिकाय को, ४. शरीर-रहित जीव को और ५. पुद्गल परमाणु को (१९५)।
विवेचन—जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म विद्यमान हैं, ऐसे बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थ जीव अरूपी चार अस्तिकायों को समस्त पर्यायों सहित पूर्ण रूप से साक्षात् नहीं जान सकता और न देख सकता है। चलते-फिरते शरीर-युक्त जीव तो दिखाई देते हैं, किन्तु शरीर-रहित जीव कभी नहीं दिखाई देता है। पुद्गल यद्यपि रूपी है, पर एक परमाणु रूप पुद्गल सूक्ष्म होने से छद्मस्थ के ज्ञान का अगोचर कहा गया है। महानरक-सूत्र
१९६- अधेलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानरगा पण्णत्ता, तं जहा—काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अप्पतिट्ठाणे।
अधोलोक में पांच अनुत्तर महातिमहान् महानरक कहे गये हैं, जैसे१. काल, २. महाकाल, ३. रौरुक, ४. महारौरुक और ५. अप्रतिष्ठान।