Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
संवत्सर होते हैं। यतः चन्द्रमास में २९ ३२/६२ दिन होते हैं, अतः चन्द्र-संवत्सर में (२९.३२/६२ x १२) = ३५४.१२/६२ दिन होते हैं। अभिवर्धित मास में ३१.१२१/१२४ दिन होते हैं, इसलिए अभिवर्धित-संवत्सर में (३१.१२१/१२४ ४ १२) = ३८३ ४४/६२ दिन होते हैं। अभिवर्धित संवत्सर में एक मास अधिक होता है।
३. प्रमाण-संवत्सर- दिन, मास आदि के परिमाण वाले संवत्सर को प्रमाण-संवत्सर कहते हैं। ४. लक्षण-संवत्सर— लक्षणों से ज्ञात होने वाले वर्ष को लक्षण-संवत्सर कहते हैं।
५. शनिश्चर-संवत्सर- जितने समय में शनिश्चर ग्रह एक नक्षत्र अथवा बारह राशियों का भोग करता है उतने समय को शनिश्चर-संवत्सर कहते हैं।
६. ऋतु-संवत्सर- दो मास-प्रमाणकाल की एक ऋतु होती है। और छह ऋतुओं का एक संवत्सर होता है। ऋतुमास में ३० दिन-रात होते हैं, अतः ऋतु-संवत्सर में ३६० दिन-रात होते हैं। इसे ही कर्म-संवत्सर कहते हैं।
७. आदित्य-संवत्सर- आदित्य मास में साढ़े तीस दिन-रात होते हैं, अतः आदित्य-संवत्सर में (३०.१/२ x १२) = ३६६ दिन-रात होते हैं।
१.जिस संवत्सर में जिस तिथि में जिस नक्षत्र का योग होना चाहिए. उस नक्षत्र का उसी तिथि में योग होता है, जिसमें ऋतुएं यथासमय परिणमन करती हैं, जिसमें न अति गर्मी पड़ती है और न अधिक सर्दी ही पड़ती है और जिसमें वर्षा अच्छी होती है, वह नक्षत्र-संवत्सर कहलाता है।
२. जिस संवत्सर में चन्द्रमा सभी पूर्णिमाओं का स्पर्श करता है, जिसमें अन्य नक्षत्रों की विषम गति होती है, जिसमें सर्दी और गर्मी अधिक होती है तथा वर्षा भी अधिक होती है, उसे चन्द्र-संवत्सर कहते हैं।
३. जिस संवत्सर में वृक्ष विषमरूप से असमय में पत्र-पुष्प रूप से परिणत होते हैं और ऋतु के फल देते हैं, जिस वर्ष में वर्षा भी ठीक नहीं बरसती है, उसे कर्मसंवत्सर या ऋतुसंवत्सर कहते हैं।
४. जिस संवत्सर में अल्प वर्षा से भी सूर्य पृथ्वी, जल, पुष्प और फलों को रस अच्छा देता है और धान्य अच्छा उत्पन्न होता है, उसे आदित्य या सूर्यसंवत्सर कहते हैं।
५. जिस संवत्सर में सूर्य के तेज से संतप्त क्षण, लव, दिवस और ऋतु परिणत होते हैं, जिसमें भूमि-भाग धूलि से परिपूर्ण रहते हैं अर्थात् सदा धूलि उड़ती रहती है, उसे अभिवर्धित-संवत्सर जानना चाहिए। जीवप्रदेश-निर्याण-मार्ग-सूत्र
२१४- पंचविधे जीवस्स णिजाणमग्गे पण्णत्ते, तं जहा—पाएहि, ऊरूहिं, उरेणं, सिरेणं, सव्वंगेहि।
__पाएहिं णिज्जायमाणे णिरयगामी भवति, ऊरूहिं णिज्जायमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं णिज्जायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं णिज्जायमाणे देवगामी भवति, सव्वंगेहिं णिज्जायमाणे सिद्धिगतिपजवसाणे पण्णत्ते।
जीव-प्रदेशों के शरीर से निकलने के मार्ग पांच कहे गये हैं, जैसे१. पैर, २. उरू, ३. हृदय, ४. शिर, ५. सर्वाङ्ग। १. पैरों से निर्याण करने (निकलने) वाला जीव नरकगामी होता है।