Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम स्थान तृतीय उद्देश
४९९ ५. मुंजापिच्चिय—मूंज को काटकर बनाया रजोहरण (१९१)। निश्रास्थान-सूत्र
१९२- धम्मण्णं चरमाणस्स पंच णिस्साट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा छक्काया, गणे, राया, गाहावती, सरीरं।
धर्म का आचरण करने वाले साधु के लिए पांच निश्रा (आलम्बन) स्थान कहे हैं, जैसे१. षट्काय, २. गण (श्रमण-संघ), ३. राजा, ४. गृहपति, ५. शरीर (१९२)।
विवेचन– आलम्बन या आश्रय देने वाले उपकारक को निश्रास्थान कहते हैं । षट्काय को भी निश्रास्थान कहने का खुलासा इस प्रकार है
१. पृथिवी की निश्रा— भूमि पर ठहरना, बैठना, सोना, मल-मूत्र-विसर्जन आदि। २. जल की निश्रा- वस्त्र-प्रक्षालन, तृषा-निवारण, शरीर-शौच आदि। ३. अग्नि की निश्रा— भोजन-पाचन, पानक, आचाम आदि। ४. वायु की निश्रा- अचित वायु का ग्रहण, श्वासोच्छ्वास आदि। ५. वनस्पति की निश्रा -- संस्तारक, पाट, फलक, वस्त्र, औषधि, वृक्ष की छाया आदि। ६. त्रस की निश्रा— दूध, दही आदि।
दूसरा निश्रास्थान गण है । गुरु के परिवार को गण कहते हैं । गण की निश्रा में रहने वाले के सारण—वारणसत्कार्य में प्रवर्तन और असत्कार्य-निवारण के द्वारा कर्म-निर्जरा होती है, संयम की रक्षा होती है और धर्म की वृद्धि होती है।
तीसरा निश्रास्थान राजा है। वह दुष्टों का निग्रह और साधुओं का अनुग्रह करके धर्म के पालन में आलम्बन होता है।
चौथा निश्रास्थान गृहपति है । गृहस्थ ठहरने को स्थान एवं भोजन-पान देकर साधुजनों का आलम्बन होता है।
पांचवाँ निश्रास्थान शरीर है। वह धर्म का आद्य या प्रधान साधन कहा गया है। निधि-सूत्र
१९३–पंच णिही पण्णत्ता, तं जहा—पुत्तणिही, मित्तणिही, सिप्पणिही, धणणिही, धण्णणिही। निधियाँ पांच प्रकार की कही गई हैं, जैसे१. पुत्रनिधि, २. मित्रनिधि, ३. शिल्पनिधि, ४. धननिधि, ५. धान्यनिधि (१९३)।
विवेचन- धन आदि के निधान या भंडार को निधि कहते हैं। जैसे संचित निधि समय पर काम आती है, उसी प्रकार पुत्र वृद्धावस्था में माता-पिता की रक्षा, सेवा-शुश्रूषा करता है। मित्र समय-समय पर उत्तम परामर्श देकर सहायता करता है। शिल्पकला आजीविका का साधन है। धन और धान्य तो साक्षात् सदा ही उपकारक और निर्वाह के कारण हैं । इसलिए इन पाँचों को निधि कहा गया है।