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स्थानाङ्गसूत्रम्
आदि को अकाल में ही धोने वाले, पात्रों पर तेल, लेप आदि कर-कर के उन्हें सुन्दर बनाने वाले साधु को उपकरण-बकुश कहते हैं।
३. कुशील निर्ग्रन्थ के भी दो भेद हैं—प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। उत्तर गुणों में अर्थात् पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह आदि में दोष लगाने वाले साधु को प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं। संज्वलन-कषाय के उदय-वश क्रोधादि कषायों से अभिभूत होने वाले साधु को कषायकुशील कहते हैं।
___४. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ के भी दो भेद हैं—उपशान्तमोहनिर्ग्रन्थ और क्षीणमोहनिर्ग्रन्थ । जो उपशमश्रेणी पर आरूढ होकर सम्पूर्णमोहकर्म का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं, उन्हें उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ कहते हैं। तथा जो क्षपकश्रेणी करके मोहकर्म का सर्वथा क्षय करके बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं और लघु अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही शेष तीन घातिकर्मों का क्षय करने वाले हैं, उन्हें क्षीणमोह निर्ग्रन्थ कहते हैं।
५. स्नातक-निर्ग्रन्थ के भी दो भेद हैं— सयोगीस्नातक जिन और अयोगीस्नातक जिन। सयोगी जिन का काल आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। इतने काल तक वे भव्य जीवों को धर्म-देशना करते हुए विचरते रहते हैं। जब उनका आयुष्क केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह जाता है, तब वे मनोयोग, वचनयोग और काययोग का निरोध करके अयोगी स्नातक जिन बनते हैं। अयोगी स्नातक का समय अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पंच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण-काल-प्रमाण है। इतने ही समय के भीतर वे चारों अघातिकर्मों का क्षय करके अजर-अमर सिद्ध हो जाते
हैं।
उपधि-सूत्र
१९०– कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं जहा—जंगिए, भंगिए, साणए, पोत्तिए, तिरीडपट्टए णामं पंचमए।
निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के वस्त्र रखने और पहनने के लिए कल्पते हैं, जैसे१. जांगमिक- जंगम जीवों के बालों से बनने वाले कम्बल आदि। २. भांगिक अतसी (अलसी) की छाल से बनने वाले वस्त्र। ३. सानिक-सन से बनने वाले वस्त्र। ४. पोतक-कपास बोंडी (रुई) से बनने वाले वस्त्र। ५. तिरीटपट्ट- लोध की छाल से बनने वाले वस्त्र (१९०)।
१९१– कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं जहा—उण्णिए, उट्टिए, साणए, पच्चापिच्चिए, मुंजापिच्चिए णामं पंचमए।
निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के रजोहरण रखने और धारण करने के लिए कल्पते हैं, जैसे१. और्णिक- भेड़ की ऊन से बने रजोहरण। २. औष्ट्रिक-ऊंट के बालों से बने रजोहरण। ३. सानिक- सन से बने रजोहरण। ४. पच्चापिच्चिय- वल्वज नाम की मोटी घास को कूटकर बनाया रजोहरण।