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निर्ग्रन्थ-सूत्र
१८४– पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा—पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाते ।
निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. पुलाक—–— निःसार धान्य कणों के समान निःसार चारित्र के धारक (मूल गुणों में भी दोष लगाने वाले)
निर्ग्रन्थ |
२. बकु— उत्तर गुणों में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ ।
३. कुशील— ब्रह्मचर्य रूप शील का अखण्ड पालन करते हुए भी शील के अठारह हजार भेदों में से किसी शील में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ ।
४. निर्ग्रन्थ— मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने वाले वीतराग निर्ग्रन्थ, ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थानवर्ती
स्थानाङ्गसूत्रम्
साधु ।
५. स्नातक— चार घातिकर्मों का क्षय करके तेरहवें - चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन (१८४) ।
१८५ – पुलाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा—णाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुमपुलाए णामं पंचमे ।
पुलाक निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. ज्ञानपुलाक— ज्ञान के स्खलित, मिलित आदि अतिचारों का सेवन करने वाला ।
२. दर्शनपुलाक— शंका, कांक्षा आदि सम्यक्त्व के अतिचारों का सेवन करने वाला ।
३. चारित्रपुलाक— मूल गुणों और उत्तर- गुणों में दोष लगाने वाला ।
४. लिंगपुलाक— शास्त्रोक्त उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला, जैनलिंग से भिन्न लिंग या वेष को कभी-कभी धारण करने वाला ।
५. यथासूक्ष्मपुलाक— प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु को ग्रहण करने का मन में विचार करने वाला (१८५)। १८६—– बउसे पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा – आभोगबउसे, अणाभोगबउसे, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे णामं पंचमे ।
कुश निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. आभोगबकुश — जान-बूझ कर शरीर को विभूषित करने वाला । २. अनाभोगबकुश — अनजान में शरीर को विभूषित करने वाला ।
३. संवृतबंकुश — लुक-छिप कर शरीर को विभूषित करने वाला ।
४. असंवृतबकु — प्रकट रूप से शरीर को विभूषित करने वाला ।
५. यथासूक्ष्मबकु — प्रकट या अप्रकट रूप से शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करने वाला (१८६) । १८७ - कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा —— णाणकुसीले, दंसणकुसीले चरित्तकुसीले, लिंगकुसीले, अहासुहुमकुसीले णामं पंचमे ।
शील निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे——
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