SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९६ निर्ग्रन्थ-सूत्र १८४– पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा—पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाते । निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. पुलाक—–— निःसार धान्य कणों के समान निःसार चारित्र के धारक (मूल गुणों में भी दोष लगाने वाले) निर्ग्रन्थ | २. बकु— उत्तर गुणों में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ । ३. कुशील— ब्रह्मचर्य रूप शील का अखण्ड पालन करते हुए भी शील के अठारह हजार भेदों में से किसी शील में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ । ४. निर्ग्रन्थ— मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने वाले वीतराग निर्ग्रन्थ, ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थानवर्ती स्थानाङ्गसूत्रम् साधु । ५. स्नातक— चार घातिकर्मों का क्षय करके तेरहवें - चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन (१८४) । १८५ – पुलाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा—णाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुमपुलाए णामं पंचमे । पुलाक निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. ज्ञानपुलाक— ज्ञान के स्खलित, मिलित आदि अतिचारों का सेवन करने वाला । २. दर्शनपुलाक— शंका, कांक्षा आदि सम्यक्त्व के अतिचारों का सेवन करने वाला । ३. चारित्रपुलाक— मूल गुणों और उत्तर- गुणों में दोष लगाने वाला । ४. लिंगपुलाक— शास्त्रोक्त उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला, जैनलिंग से भिन्न लिंग या वेष को कभी-कभी धारण करने वाला । ५. यथासूक्ष्मपुलाक— प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु को ग्रहण करने का मन में विचार करने वाला (१८५)। १८६—– बउसे पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा – आभोगबउसे, अणाभोगबउसे, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे णामं पंचमे । कुश निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. आभोगबकुश — जान-बूझ कर शरीर को विभूषित करने वाला । २. अनाभोगबकुश — अनजान में शरीर को विभूषित करने वाला । ३. संवृतबंकुश — लुक-छिप कर शरीर को विभूषित करने वाला । ४. असंवृतबकु — प्रकट रूप से शरीर को विभूषित करने वाला । ५. यथासूक्ष्मबकु — प्रकट या अप्रकट रूप से शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करने वाला (१८६) । १८७ - कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा —— णाणकुसीले, दंसणकुसीले चरित्तकुसीले, लिंगकुसीले, अहासुहुमकुसीले णामं पंचमे । शील निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—— "
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy