________________
पंचम स्थान तृतीय उद्देश
४९७
१. ज्ञानकुशील— काल, विनय, उपधान आदि ज्ञानाचार को नहीं पालने वाला। २. दर्शनकुशील— निःकांक्षित, निःशंकित आदि दर्शनाचार को नहीं पालने वाला। ३. चारित्रकुशील— कौतुक, भूतिकर्म, निमित्त, मंत्र आदि का प्रयोग करने वाला। ४. लिंगकुशील–साधुलिंग से आजीविका करने वाला। ५. यथासूक्ष्मकुशील– दूसरे के द्वारा तपस्वी, ज्ञानी कहे जाने पर हर्ष को प्राप्त होने वाला (१८७)।
१८८- णियंठे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा—पढमसमयणियंठे, अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमयणियंठे, अहासुहमणियंठे णामं पंचमे।
निर्ग्रन्थ नामक निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. प्रथमसमयनिर्ग्रन्थ- निर्ग्रन्थ दशा को प्राप्त प्रथमसमयवर्ती निर्ग्रन्थ। २. अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थ— निर्ग्रन्थ दशा को प्राप्त द्वितीयादिसमयवर्ती निर्ग्रन्थ । ३. चरमसमयवर्तीनिर्ग्रन्थ— निर्ग्रन्थ दशा के अन्तिम समय वाला निर्ग्रन्थ। ४. अचरमसमयवर्तीनिर्ग्रन्थ – अन्तिम समय के सिवाय शेष समयवर्ती निर्ग्रन्थ ।
५. यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ— निर्ग्रन्थ दशा के अन्तर्मुहूर्तकाल में प्रथम या चरम आदि की विवक्षा न करके सभी समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ (१८८)।
१८९- सिणाते पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संसुद्धणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, अपरिस्साई।
स्नातक निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं, जैसे— १. अच्छविस्नातक— काय योग का निरोध करने वाला स्नातक। २. अशबलस्नातक-निर्दोष चारित्र का धारक स्नातक। ३. अकर्मांशस्नातक— कर्मों का सर्वथा विनाश करने वाला। ४. संशुद्धज्ञान-दर्शनधरस्नातक— विमल केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक अर्हन्त केवलीजिन। ५. अपरिश्रावीस्नातक— सम्पूर्ण काययोग का निरोध करने वाले अयोगी जिन (१८९)।
विवेचन— प्रस्तुत सूत्रों में पुलाक आदि निर्ग्रन्थों के सामान्य रूप से पांच-पांच भेद बताये गये हैं, किन्तु भगवतीसूत्र में, तत्त्वार्थसूत्र की दि०श्वे० टीकाओं में तथा प्रस्तुत स्थानाङ्गसूत्र की संस्कृत टीका में आदि के तीन निर्ग्रन्थों के दो-दो भेद और बताये गये हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१. पुलाक के दो भेद हैं— लब्धिपुलाक और प्रतिसेवनापुलाक। तपस्या-विशेष से प्राप्त लब्धि का संघ की सुरक्षा के लिए प्रयोग करने वाले पुलाक साधु को लब्धिपुलाक कहते हैं । ज्ञानदर्शनादि की विराधना करने वाले को प्रतिसेवनापुलाक कहते हैं।
२. बकुश के भी दो भेद हैं— शरीर-बकुश और उपकरण-बकुश। अपने शरीर के हाथ, पैर, मुख आदि को पानी से धो-धोकर स्वच्छ रखने वाले, कान, आंख, नाक आदि का कान-खुरचनी, अंगुली आदि से मल निकालने वाले, दांतों को साफ रखने और केशों का संस्कार करने वाले साधु को शरीर-बकुश कहते हैं। पात्र, वस्त्र, रजोहरण