Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
आचार-सूत्र
१४७- पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा–णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे।
आचार पाँच प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार, ५. वीर्याचार (१४७)। आचारप्रकल्प-सूत्र
१४८- पंचविहे आयारकप्पे पण्णत्ते, तं जहा—मासिए उग्घातिए, मासिए अणुग्यातिए, चउमासिए उग्धातिए, चउमासिए अणुग्घातिए, आरोवणा।
आचारप्रकल्प (निशीथ सूत्रोक्त प्रायश्चित्त) पांच प्रकार का कहा गया है, जैसे१. मासिक उद्घातिक— लघु मासरूप प्रायश्चित्त। २. मासिक अनुद्घातिक– गुरु मासरूप प्रायश्चित्त। ३. चातुर्मासिक उद्घातिक— लघु चार मासरूप प्रायश्चित्त। ४. चातुर्मासिक अनुद्घातिक— गुरु चार मासरूप प्रायश्चित्त ।
५. आरोपणा— एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के सेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना (१४८)।
विवेचन – मासिक तपश्चर्या वाले प्रायश्चित्त में कुछ दिन कम करने को मासिक उद्घातिक या लघुमास प्रायश्चित्त कहते हैं तथा मासिक तपश्चर्या वाले प्रायश्चित्त में से कुछ भी अंश कम नहीं करने को मासिक अनुद्घातिक या गुरुमास प्रायश्चित्त कहते हैं। यही अर्थ चातुर्मासिक उद्घातिक और अनुद्घातिक का भी जानना चाहिए। आरोपण का विवेचन आगे के सूत्र में किया जा रहा है। आरोपणा-सूत्र
१४९- आरोवणा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा—पट्टविया, ठविया, कसिणा, अकसिणा, हाडहडा।
आरोपणा पांच प्रकार की कही गई है, जैसे१. प्रस्थापिता आरोपणा- प्रायश्चित्त में प्राप्त अनेक तपों में से किसी एक तप को प्रारम्भ करना।
२. स्थापिता आरोपणा— प्रायश्चित्त रूप से प्राप्त तपों को भविष्य के लिए स्थापित किये रखना, गुरुजनों की वैयावृत्त्य आदि किसी कारण से प्रारम्भ न करना।
३. कृत्स्ना आरोपणा— पूरे छह मास की तपस्या का प्रायश्चित्त देना, क्योंकि वर्तमान जिनशासन में उत्कृष्ट तपस्या की सीमा छह मास की मानी गई है।
४. अकृत्स्ना आरोपणा— एक दोष के प्रायश्चित्त को करते हुए दूसरे दोष को करने पर तथा उसके प्रायश्चित्त को करते हुए तीसरे दोष के करने पर यदि प्रायश्चित्त तपस्या का काल छह मास से अधिक होता है तो उसे छह मास