Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं, जैसे
१. अरसाहार— हींग आदि के वघार से रहित भोजन लेने वाला भिक्षुक। २. विरसाहार- पुराने धान्य का भोजन करने वाला भिक्षुक। ३. अन्त्याहार— बचे-खुचे आहार को लेने वाला भिक्षुक। ४. प्रान्ताहार- तुच्छ आहार को लेने वाला भिक्षुक। ५. रूक्षाहार— रूखा-सूखा आहार करने वाला भिक्षुक (४०)।
४१- पंच ठाणाइं जाव (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहाअरसजीवी, विरसजीवी, अंतजीवी, पंतजीवी, लूहजीवी।
पुनः श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच (अभिग्रह) स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं, जैसे
१. अरसजीवी- जीवन भर रस रहित आहार करने वाला भिक्षुक। २. विरसजीवी— जीवन भर विरस हुए पुराने धान्य का भात आदि लेने वाला भिक्षुक। ३. अन्त्यजीवी— जीवन भर बचे-खुचे आहार को लेने वाला भिक्षुक। - ४. प्रान्तजीवी— जीवन भर तुच्छ आहार को लेने वाला भिक्षुक। ५. रूक्षजीवी— जीवन भर रूखे-सूखे आहार को लेने वाला भिक्षुक (४१)।
४२– पंच ठाणाइं (समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुड्याइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भणुण्णाताई) भवंति, तं जहाठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, वीरासणिए, णेसजिए ॥
श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं, जैसे
१. स्थायानतिक- दोनों भुजाओं को नीचे घुटनों तक लंबाकर कायोत्सर्ग मुद्रा से खड़े रहने वाला मुनि। २. उत्कुटुकासनिक- उकडू बैठने वाला मुनि।
३. प्रतिमास्थायी प्रतिमा-मूर्ति के समान पद्मासन से बैठने वाला मुनि । अथवा एकरात्रिक आदि भिक्षुप्रतिमा को धारण करने वाला मुनि।
४. वीरासनिक- वीरासन से बैठने वाला मुनि। ५. नैषधिक— पालथी लगाकर बैठने वाला मुनि (४२)।
विवेचन- भूमि पर पैर रखकर सिंहासन या कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उसी स्थिति में सिंहासन या कुर्सी के निकाल देने पर स्थित रहने को वीरासन कहते हैं। इस आसन से वीर पुरुष ही अवस्थित रह सकता है, इसीलिए यह वीरासन कहलाता है। निषद्या शब्द का सामान्य अर्थ बैठना है आगे इसी स्थान के सूत्र ५० में इसके पांच भेदों का विशेष वर्णन किया जाएगा।