Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम स्थान प्रथम उद्देश
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धर्म का व्याख्यान करना, समझाना आदि बड़ा दुर्गम (कठिन) होता है। अन्तिम तीर्थंकर के समय के साधु वक्र (कुटिल) और जड़ होते हैं, इसलिए उनको भी तत्त्व का समझाना आदि दुर्गम होता है। जब धर्म या तत्त्व समझेंगे ही नहीं, तब उसका आचरण क्या करेंगे ? प्रथम तीर्थंकर के समय के पुरुष अधिक सुकुमार होते हैं, अत: उन्हें परीषहादि का सहना कठिन होता है और अन्तिम तीर्थंकर के समय के पुरुष चंचल मनोवृत्ति वाले होते हैं और चित्त की एकाग्रता के बिना न परीषहादि सहन किये जा सकते हैं और न धर्म का आचरण या परिपालन ही ठीक हो सकता है।
३३— पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा—सुआइक्खं, सुविभजं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं।
मध्यवर्ती (बाईस) तीर्थंकरों के शासन में पांच स्थान सुगम (सुबोध्य) होते हैं, जैसे१. स्वाख्येय-धर्मतत्त्व का व्याख्यान करना सुगम होता है। २.सविभाज्य - तत्त्व का नय-विभाग से समझाना सगम होता है। ३. सुदर्श— तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना सुगम होता है। ४. सुतितिक्ष- उपसर्ग-परीषहादि का सहन करना सुगम होता है। ५. स्वनुचर- धर्म का आचरण करना सुगम होता है (३३)।
विवेचन— मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय के पुरुष ऋजु (सरल) और प्राज्ञ (बुद्धिमान्) होते हैं, अतः उनको धर्मतत्त्व का समझाना भी सरल होता है और परीषहादि का सहन करना और धर्म का पालन करना भी आसन होता है। अभ्यनुज्ञात-सूत्र
३४- पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चमब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहा खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे।
श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं, जैसे
१. क्षान्ति (क्षमा), २. मुक्ति (निर्लोभता), ३. आर्जव (सरलता), ४. मार्दव (मृदुता) और लाघव (लघुता) (३४)।
३५- पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं जाव (समणाणं णिग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताइं णिच्चं कित्तिताइं णिच्चं बुझ्याई णिच्चं पसत्थाई णिच्चं) अब्भणुण्णाताई भवंति, तं जहासच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासी।
श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए पांच स्थान सदा वर्णित किये हैं, कीर्त्तित किये हैं, व्यक्त किये हैं, प्रशंसित किये हैं और अभ्यनुज्ञात किये हैं। जैसे
१. सत्य, २. संयम, ३. तप, ४. त्याग और ५. ब्रह्मचर्य (३५)।