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स्थानाङ्गसूत्रम्
इसी प्रकार वैश्रमण तक के सभी लोकपालों की चार-चार अग्रमहिषियां कही गई हैं (१८० ) ।
१८१ - ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्तओ, तं जहा— पुढवी, राती, रयणी, विज्जु ।
देवराज देवेन्द्र ईशान के लोकपाल महाराज सोम की चार अग्रमहिषियां कही गई हैं, जैसे—
१. पृथ्वी, २. रात्रि, ३. रजनी, ४. विद्युत् (१८१) ।
१८२ — एवं जाव वरुणस्स ।
इसी प्रकार वरुण तक के सभी लोकपालों की चार-चार अग्रमहिषियां कही गई हैं (१८२) ।
विकृति - सूत्र
१८३ – चत्तारि गोरसविगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा खीरं, दहिं, सप्पिं, णवणीतं ।
चार गोरस सम्बन्धी विकृतियां कही गई हैं, जैसे—
१. क्षीर (दूध), २. दही, ३. घी, ४. नवनीत (मक्खन) (१८३ ) ।
१८४ - चत्तारि सिणेहविगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा— तेल्लं, घयं, वसा, णवणीतं ।
चार स्नेह (चिकनाई) वाली विकृतियां कही गई हैं, जैसे
१. तेल, २. घी, ३. वसा (चर्बी), ४. नवनीत (१८४) ।
१८५ चत्तारि महाविगतीओ, तं जहा महुं, मंसं, मज्जं, णवणीतं ।
चार महाविकृतियां कही गई हैं, जैसे
१. मधु, २. मांस, ३. मद्य, ४. नवनीत (१८५) ।
गुप्त - अगुप्त-सुत्र
१८६ - चत्तारि कूडागारा पण्णत्ता, तं जहा गुत्ते णामं एगे गुत्ते, गुत्ते णामं एगे अगुत्ते, अगुत्ते णामं एगे गुत्ते, अगुत्ते णामं एगे अगुत्ते ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा गुत्ते णामं एगे गुत्ते, गुत्ते णामं एगे अगुत्ते, अगुत्ते णामं एगे गुत्ते, अगुत्ते णामं एगे अगुत्ते ।
चार प्रकार के कूटागार (शिखर वाले घर अथवा प्राणियों के बन्धन स्थान) कहे गये हैं, जैसे—
१. गुप्त होकर गुप्त – कोई कूटागार परकोटे से भी घिरा होता है और उसके द्वार भी बन्द होते हैं अथवा काल की दृष्टि से पहले भी बन्द, बाद में भी बन्द ।
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२. गुप्त होकर अगुप्त — कोई कूटागार परकोटे से घिरा होता है, किन्तु उसके द्वार बन्द नही होते । ३. अगुप्त होकर गुप्त - कोई कूटागार परकोटे से घिरा नहीं होता, किन्तु उसके द्वार बन्द होते हैं । ४. अगुप्त होकर अगुप्त – कोई कूटागार न परकोटे से घिरा होता है और न उसके द्वार ही बन्द होते हैं । इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
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