Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ स्थान द्वितीय उद्देश
होते हैं।
४. किसी कृश शरीर वाले पुरुष के भी विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न नहीं होते और दृढ शरीर वाले के भी उत्पन्न नहीं होते (२५३) ।
२७१
विवेचन — सामान्य ज्ञान और दर्शन तो सभी संसारी प्राणियों के जाति, इन्द्रिय आदि के तारतम्य से हीनाधिक पाये जाते हैं । किन्तु प्रकृत सूत्र में विशिष्ट क्षयोपशम से होने वाले अवधिज्ञान- दर्शनादि और तदावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले केवल-ज्ञान और केवल दर्शन का अभिप्राय है । इनकी उत्पत्ति का सम्बन्ध कृश या दृढशरीर से नहीं, किन्तु तदावरण कर्म के क्षय और क्षयोपशम से है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए।
अतिशेष - ज्ञान-दर्शन- सूत्र
२५४— चउहिँ ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अस्सि समयंसि अतिसेसे णाणदंसणे समुज्जिकाविण समुप्पज्जेज्जा, तं जहा—
१. अभिक्खणं- अभिक्खणं इत्थिकहं भत्तकहं देसकहं कहेत्ता भवति ।
२. विवेगेण विउस्सग्गेणं णो सम्ममप्पाणं भावित्ता भवति ।
३. पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति ।
४. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स णो सम्मं गवेसित्ता भवति ।
इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा जाव ] अस्सिं समयंसि अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिकामेवि ] णो. समुप्पज्जेज्जा ।
चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के इस समय के अर्थात् तत्काल अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी उत्पन्न नहीं होते, जैसे—
१. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी वार-वार स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा करता है ।
२. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी विवेक और व्युत्सर्ग के द्वारा आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित करने वाला नहीं
होता ।
३.
. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी पूर्वरात्रि और अपररात्रिकाल के समय धर्म- जागरण करके जागृत नहीं रहता । ४. जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक, एषणीय, उञ्छ और सामुदानिक भिक्षा की सम्यक् प्रकार से गवेषणा नहीं
करता ।
इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को तत्काल अतिशय-युक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते भी रुक जाते हैं, उत्पन्न नहीं होते (२५४) ।
विवेचन— साधु और साध्वी को विशिष्ट, अतिशय - सम्पन्न ज्ञान और दर्शन को उत्पन्न करने के लिए चार कार्यों को करना अत्यावश्यक है। वे चार कार्य हैं - १. विकथा का नहीं करना । २. विवेक और कायोत्सर्गपूर्वक आत्मा की सम्यक् भावना करना। ३. रात के पहले और पिछले पहर में जाग कर धर्मचिन्तन करना तथा ४. प्रासुक, एषणीय, उञ्छ और सामुदानिक गोचरी लेना । जो साधु या साध्वी उक्त कार्यों को नहीं करता, वह अतिशायी ज्ञानदर्शन को प्राप्त नहीं कर पाता। इस संदर्भ में आये हुए विशिष्ट पदों का अर्थ इस प्रकार है—