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स्थानाङ्गसूत्रम्
होता।
३. बड़े-बड़े महोरगों के शरीरों को देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता।
४. महर्धिक, महाद्युतिक, महानुभाव, महान् यशस्वी, महान् बलशाली और महान् सुख वाले देवों को देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता।
५. पुरों में, ग्रामों में, आकरों में, नगरों में, खेटों में, कर्वटों में, मडम्बों में, द्रोणमुखों में, पत्तनों में, आश्रमों में, संबाधों में, सन्निवेशों में, शृंगाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों, चौमुहानों और छोटे-बड़े मार्गों में, गलियों में, नालियों में, श्मशानों में, शून्य गृहों में, गिरिकन्दराओं में, शान्तिगृहों में, शैल-गृहों में, उपस्थान-गृहों में और भवन-गृहों में दबे हुए एक से एक बड़े महानिधानों को जिनके कि मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत विस्मृतप्रायः हो चुके हैं और जिनके उत्तराधिकारी कोई नहीं हैं देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में विचलित नहीं होता (२२)।
इन पांच कारणों से उत्पन्न होता हुआ केवल वर-ज्ञान-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता।
विवेचन— पूर्व सूत्र में जो पांच कारण अवधि ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होते-होते स्तम्भित होने के बताये गये थे, वे ही पांच कारण यहां केवल ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होने में बाधक नहीं होते। इसका कारण यह है कि अवधि ज्ञान तो हीन संहनन और हीन सामर्थ्य वाले मनुष्यों को भी उत्पन्न हो सकता है, अतः वे उक्त पांच कारणों में से किसी एक भी कारण के उपस्थित होने पर अपने उपयोग से चल-विचल हो सकते हैं। किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन तो वज्रर्षभनाराचसंहनन के, उसमें भी जो घोरातिघोर परीषह और उपसर्गों से भी चलायमान नहीं होता और जिसका मोहनीय कर्म दशवें गुणस्थान में ही क्षय हो चुका है, अतः जिसके विस्मय, भय और लोभ का कोई कारण ही शेष नहीं रहा है, ऐसे परमवीतरागी क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान वाले पुरुष को उत्पन्न होता है, अतः ऐसे परम धीर-वीर महान् साधक के उक्त पांच कारण तो क्या, यदि एक से बढ़ चढ़कर सहस्रों विघ्न-बाधाओं वाले कारण एक साथ उपस्थित हो जावें, तो भी उत्पन्न होते हुए केवलज्ञान और केवलदर्शन को नहीं रोक सकते हैं। शरीर-सूत्र
२३– णेरड्याणं सरीरगा पंचवण्णा पंचरसा पण्णत्ता, तं जहा—किण्हा जाव (णीला, लोहिता, हालिद्दा), सुक्किल्ला। तित्ता, जाव (कडुया, कसाया, अंबिला), मधुरा।
नारकी जीवों के शरीर पांच वर्ण और पांच रस वाले कहे गये हैं, जैसे१. कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और श्वेत वर्ण वाले। २. तथा तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले (२३)। २४— एवं—णिरंतरं जाव वेमाणियाणं।
इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों वाले जीवों के शरीर पांचों वर्ण और पांचों रस वाले जानना चाहिए (२४)।
विवेचन- व्यवहार से शरीरों के बाहरी वर्ण नारकी और देवादिकों के कृष्ण या नीलादि एक ही वर्ण वाले होते हैं। किन्तु निश्चय से शरीर के विभिन्न अवयव पांचों वर्ण वाले होते हैं। इसी प्रकार रसों के विषय में भी जानना