Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंचम स्थान प्रथम उद्देश
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नवीन शब्द आये हैं। उनका अर्थ और आकार इस प्रकार है
१. श्रृंगाटक-सिंघाड़े के आकार वाला तीन मार्गों का मध्य भाग। २. त्रिकपथ-तिराहा, तिगड्डा- जहाँ पर तीन मार्ग मिलते हैं। ३. चतुष्कपथ-चौराहा, चौक- जहाँ पर चार मार्ग मिलते हैं। ४. चतुर्मुख-चौमुहानी— जहाँ पर चारों दिशाओं के मार्ग निकलते हैं। ५. पथ- मार्ग, गली आदि। ६. महापथ- राजमार्ग चौड़ा रास्ता, मेन रोड। ७. नगर-निर्द्धमन— नगर की नाली, नाला आदि। ८. शान्तिगृह- शान्ति, हवन आदि करने का घर। ९. शैलगृह- पर्वत को काट कर या खोद कर बनाया मकान। १०. उपस्थानगृह— सभामंडप। ११. भवनगृह- नौकर-चाकरों के रहने का मकान।
कहीं-कहीं चतुर्मुख का अर्थ चार द्वार वाले देवमन्दिर आदि भी किया गया है। इसी प्रकार अन्य शब्दों के अर्थ में भी कुछ व्याख्या-भेद पाया जाता है। प्रकृत में मूल अभिप्राय इतना ही है कि अवधि ज्ञान-दर्शन जितने क्षेत्र की सीमा वाला होता है, उतने क्षेत्र के भीतर की रूपी वस्तुओं का उसे प्रत्यक्ष दर्शन होता है।
२१- पंचहिं ठाणेहिं केवलवरणाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा, तं जहा
१. अप्पभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएजा। २. सेसं तहेव जाव (कुंथुरासिभूतं वा पुढविं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएजा)। ३. महतिमहालयं वा महोरगसरीरं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएजा। ४. देवं वा महिड्डियं महज्जुइयं महाणुभागं महायसं महाबलं महासोक्खं पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। ५. (पुरेसु वा पोराणाइं उरालाइं महतिमहालयाई महाणिहाणाइं पहीणसामियाइं पहीणसेउयाइं पहीणगुत्तागाराइं उच्छिण्णसामियाइं उच्छिण्णसेउयाइं उच्छिण्णगुत्तागाराई जाई इमाइं गामागर-णगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु-णगर-णिद्धमणेसु-सुसाण-सुण्णागार-गिरिकंदर-संति सेलोवट्ठावण) भवण-गिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिटुंति, ताई वा पासित्ता तप्पढमयाए णो खंभाएज्जा। .
सेसं तहेव। इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं जाव (केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिउकामे तप्पढमयाए) जाव णो खंभाएजा।
पांच कारणों से उत्पन्न होता हुआ केवलवर-ज्ञान-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता है, जैसे
१. पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता। २. कुंथु आदि क्षुद्र जीव-राशि से भरी हुई पृथ्वी को देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं