________________
४३६
स्थानाङ्गसूत्रम् __ इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं ओहिदंसणे समुप्पजिउकामे तप्पढमयाए खंभाएजा।
पांच कारणों से अवधि-[ज्ञान-] दर्शन उत्पन्न होता हुआ भी अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित.(क्षुब्ध या चलायमान) हो जाता है, जैसे
१. पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है। २.कुंथु जैसे क्षुद्र-जीवराशि से भरी हुई पृथ्वी को देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित हो जाता है। ३. बड़े-बड़े महोरगों—(सांपों) के शरीरों को देखकर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है।
४. महर्धिक, महाद्युतिक, महानुभाग, महान् यशस्वी, महान् बलशाली और महान् सुख वाले देवों को देख कर वह अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता है।
५. पुरों में, ग्रामों में, आकरों में, नगरों में, खेटों में, कर्वटों में, मडम्बों में, द्रोणमुखों में, पत्तनों में, आश्रमों में, संबाधों में, सन्निवेशों में, नगरों के शृंगाटकों, तिराहों, चौकों, चौराहों, चौमुहानों और छोटे-बड़े मार्गों में, गलियों में, नालियों में, श्मशानों में, शून्य गृहों में, गिरिकन्दराओं में, शान्ति गृहों में, शैलगृहों में, उपस्थापनगृहों और भवन-गृहों में दबे हुए एक से एक बड़े महानिधानों को (धन के भण्डारों या खजानों को) जिनके कि स्वामी, मर चुके हैं, जिनके मार्ग प्रायः नष्ट हो चुके हैं, जिनके नाम और संकेत विस्मृतप्रायः हो चुके हैं और जिनके उत्तराधिकारी कोई नहीं हैं- देखकर अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित हो जाता है।
इन पांच कारणों से उत्पन्न होता हुआ अवधि-[ज्ञान-]-दर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में ही स्तम्भित हो जाता
विवेचन— विशिष्ट ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति या विभिन्न ऋद्धियों की प्राप्ति एकान्त में ध्यानावस्थित साधु को होती है। उस अवस्था में सिद्ध या प्राप्त ऋद्धि का तो पता उसे तत्काल नहीं चलता है, किन्तु विशिष्ट ज्ञान-दर्शन के उत्पन्न होते ही सूत्रोक्त पांच कारणों में से सर्वप्रथम पहला ही कारण उसके सामने उपस्थित होता है। ध्यानावस्थित व्यक्ति की नासाग्र-दृष्टि रहती है, अतः उसे सर्वप्रथम पृथ्वीगत जीव ही दृष्टिगोचर होते हैं। तदनन्तर पृथ्वी पर विचरने वाले कुन्थ आदि छोटे-छोटे जन्तु विपुल परिमाण में दिखाई देते हैं। तत्पश्चात् भूमिगत बिलों आदि में बैठे सांपराज-नागराज आदि दिखाई देते हैं। यदि उसके अवधिज्ञानावरण-अवधिदर्शनावरण कर्म का और भी विशिष्ट क्षयोपशम हो रहा है तो उसे महावैभवशाली देव दृष्टिगोचर होते हैं और ग्राम-नगरादि की भूमि में दबे हुए खजाने भी दिखने लगते हैं। इन सब को देख कर सर्वप्रथम उसे विस्मय होता है कि यह मैं क्या देख रहा हूँ! पुन:जीवों से व्याप्त पृथ्वी को देखकर करुणाभाव भी जागृत हो सकता है। बड़े-बड़े सांपों को देखने से भयभीत भी हो सकता है और भूमिगत खजानों को देखकर के वह लोभ से भी अभिभूत हो सकता है। इनमें से किसी एक-दो या सभी कारणों के सहसा उपस्थित होने पर ध्यानावस्थित व्यक्ति का चित्त चलायमान होना स्वाभाविक है।
यदि वह उस समय चल-विचल न हो तो तत्काल उसके विशिष्ट अतिशय सम्पन्न ज्ञान-दर्शनादि उत्पन्न हो जाते हैं और यदि वह उस समय विस्मयादि कारणों में से किसी भी एक-दो या सभी के निमित्त से चल-विचल हो जाता है, तो वे उत्पन्न होते हुए भी रुक जाते हैं—उत्पन्न नहीं होते।
यही बात आगे के सूत्र में केवल ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति के विषय में भी जानना चाहिए। सूत्रोक्त ग्राम-नगरादि का अर्थ दूसरे स्थान के सूत्र ३९० के विवेचन में किया जा चुका है। जो शृंगाटक आदि