Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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स्थानाङ्गसूत्रम्
द्विशरीर-सूत्र
४८३ – उड्डलोगे णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता, तं जहा ——— पुढविकाइया, आउकाइया,
वणस्सकाइया, उराला तसा पाणा ।
ऊर्ध्वलोक में चार द्विशरीरी (दो शरीर वाले) कहे गये हैं, जैसे—
१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. वनस्पतिकायिक, ४. उदार त्रस प्राणी (४८३)।
४८४— अहोलोगे णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता, तं जहा एवं चेव, (पुढविकाइया, आउकाइया, वणस्सकाइया, उराला तसा पाणा । )
अधोलोक में चार द्विशरीरी कहे गये हैं, जैसे
१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. वनस्पतिकायिक, ४. उदार त्रस प्राणी (४८४) ।
४८५— एवं तिरियलोगे वि ( णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता, तं जहा एवं चेव, (पुढविकाइया, आउकाइया, वणस्सइकाइया, उराला तसा पाणा । )
तिर्यक्लोक में चार द्विशरीरी कहे गये हैं, जैसे—
१. पृथ्वीकायिक, २. अप्कायिक, ३. वनस्पतिकायिक, ४. उदार त्रस प्राणी (४८५) ।
विवेचन— छह कायिक जीवों में से उक्त तीनों सूत्रों में अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़ दिया गया है, क्योंकि वे मर कर मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं और इसीलिए वे दूसरे भव में सिद्ध नहीं हो सकते। छहों कायों में जो सूक्ष्म जीव हैं, वे भी मर कर अगले भव में मनुष्य न हो सकने के कारण मुक्त नहीं हो सकते। त्रस पद के पूर्व जो 'उदार' विशेषण दिया गया है, उससे यह सूचित किया गया है कि विकलेन्द्रिय त्रस प्राणी भी अगले भव में सिद्ध नहीं हो सकते। अतः यह अर्थ फलित होता है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय त्रस जीवों को 'उदार त्रस प्राणी' पद से ग्रहण करना चाहिए ।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि सूत्रोक्त सभी प्राणी अगले भव में मनुष्य होकर सिद्ध नहीं होंगे। किन्तु उनमें जो आसन्न या अतिनिकट भव्य जीव हैं, उनमें भी जिसको एक ही नवीन भव धारण करके सिद्ध होना है, उनका प्रकृत सूत्रों में वर्णन किया गया है और उनकी अपेक्षा से एक वर्तमान शरीर और एक अगले भव का मनुष्य शरीर ऐसे दो शरीर उक्त प्राणियों के बतलाये गये हैं ।
सत्त्व-सूत्र
४८६ — चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते ।
पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. ह्रीसत्त्व किसी भी परिस्थिति में लज्जावश कायर न होने वाला पुरुष ।
२. हीमन:सत्त्व — शरीर में रोमांच, कम्पनादि होने पर भी मन में दृढ़ता रखने वाला पुरुष ।
३. चलसत्त्व — परीषहादि आने पर विचलित हो जाने वाला पुरुष ।
४. स्थिरसत्त्व — उग्र से उग्र परीषह और उपसर्ग आने पर भी स्थिर रहने वाला पुरुष (४८६) ।