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स्थानाङ्गसूत्रम्
शिष्यपरिवार वाले होते हैं।
२. शाल और एरण्डपरिवार- कोई आचार्य शाल के समान जातिमान्, किन्तु एरण्डपरिवार के समान अयोग्य शिष्यपरिवार वाले होते हैं।
३. एरण्ड और शालपरिवार- कोई आचार्य एरण्ड के समान हीन जाति वाले, किन्तु शाल के समान उत्तम शिष्य-परिवार वाले होते हैं।
४. एरण्ड और एरण्डपरिवार- कोई आचार्य एरण्ड के समान हीन जाति वाले और एरण्ड परिवार के समान अयोग्य शिष्यपरिवार वाले होते हैं।
१. जिस प्रकार शाल नाम का वृक्ष शालवृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी प्रकार उत्तम आचार्य उत्तम शिष्यों के परिवार वाला आचार्यराज जानना चाहिए।
२. जिस प्रकार शाल नाम का वृक्ष एरण्ड वृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी प्रकार उत्तम आचार्य मंगुल (अधम-सुन्दर) शिष्यों के परिवार वाला जानना चाहिए।
३. जिस प्रकार एरण्ड नाम का वृक्ष शाल वृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी प्रकार सुन्दर शिष्यों के परिवार वाला मंगुल आचार्य जानना चाहिए।
४. जिस प्रकार एरण्ड नाम का वृक्ष एरण्ड वृक्षों के मध्य में वृक्षराज होता है, उसी प्रकार मंगुल शिष्यों के परिवार वाला मंगुल आचार्य जानना चाहिए (५४३)। भिक्षाक-सूत्र
५४४- चत्तारि मच्छा पण्णत्ता, तं जहा—अणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी। एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता, तं जहा—अणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मझचारी। मत्स्य चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. अनुस्रोतचारी- जल-प्रवाह के अनुकूल चलने वाला मत्स्य। २. प्रतिस्रोतचारी— जल-प्रवाह के प्रतिकूल चलने वाला मत्स्य। ३. अन्तचारी— जल-प्रवाह के किनारे-किनारे चलने वाला मत्स्य। ४. मध्यचारी— जल-प्रवाह के मध्य में चलने वाला मत्स्य। इसी प्रकार भिक्षुक भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. अनुस्रोतचारी— उपाश्रय से लगाकर सीधी गली में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला। २. प्रतिस्रोतचारी— गली के अन्त से लगा कर उपाश्रय तक स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला। ३. अन्तचारी— नगर-ग्रामादि के अन्त भाग में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला। ४. मध्यचारी- नगर-ग्रामादि के मध्य में स्थित घरों से भिक्षा लेने वाला।
साधु उक्त चार प्रकार के अभिग्रहों में से किसी एक प्रकार का अभिग्रह लेकर भिक्षा लेने के लिए निकलते हैं और अपने अभिग्रह के अनुसार ही भिक्षा ग्रहण करते हैं (५४४)।