Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ स्थान – चतुर्थ उद्देश
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विवेचन- पुरुष-संयोग के बिना स्त्री का रज वायु-विकार से पिण्ड रूप में गर्भ-स्थित होकर बढ़ने लगता है, वह गर्भ के समान बढ़ने से बिम्ब या प्रतिबिम्बरूप गर्भ कहा जाता है पर उससे सन्तान का जन्म नहीं होता। किन्तु एक गोल-पिण्ड निकल कर फूट जाता है। पूर्ववस्तु-सूत्र
६४३- उप्पायपुव्वस्स णं चत्तारि चूलवत्थू पण्णत्ता।
उत्पाद पूर्व (चतुर्दश पूर्वगत श्रुत के प्रथम भेद) के चूलावस्तु नामक चार अधिकार कहे गये हैं, अर्थात् उसमें चार चूलाएं थीं (६४३)। काव्य-सूत्र
६४४- चउव्विहे कव्वे पण्णत्ते, तं जहा—गज्जे, पज्जे, कत्थे, गेए। काव्य चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे१. गद्य-काव्य, २. पद्य-काव्य, ३. कथ्य-काव्य, ४. गेय-काव्य (६४४)।
विवेचन— छन्द-रहित रचना-विशेष को गद्यकाव्य कहते हैं। छन्द वाली रचना को पद्यकाव्य कहते हैं। कथा रूप में कही जाने वाली रचना को कथ्यकाव्य कहते हैं। गाने के योग्य रचना को गेयकाव्य कहते हैं। समुद्घात-सूत्र
६४५–णेरइयाणं चत्तारि समुग्याता पण्णत्ता, तं जहा—वेयणासमुग्धाते, कसायसमुग्गघाते, मारणंतियसमुग्धाते, वेउब्वियसमुग्धाते।
नारक जीवों के चार समुद्घात कहे गये हैं, जैसे— १. वेदना-समुद्घात, २. कषाय-समुद्घात, ३. मारणान्तिक-समुद्घात, ४. वैक्रिय-समुद्घात (६४५)। ६४६– एवं वाउक्काइयाणवि। इसी प्रकार वायुकायिक जीवों के भी चार समुद्धात होते हैं।
विवेचन— मूल शरीर को नहीं छोड़ते हुए किसी कारण-विशेष से जीव के कुछ प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। समुद्घात के सात भेद आगे सातवें सूत्र १३८ में कहे गये हैं। उनमें से नारक और वायुकायिक जीवों में केवल चार ही समुद्घात होते हैं। उनका अर्थ इस प्रकार है
१. वेदना की तीव्रता से जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना वेदनासमुद्घात है।
२. कषाय की तीव्रता से जीव के कुछ प्रदेशों का बहार निकलना कषायसमुद्घात है। १. मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स।
णिग्गमणं देहादो होदि समुग्घाद णामं तु ॥ ६६७॥ - गो० जीवकाण्ड