Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
४२२
स्थानाङ्गसूत्रम्
मिच्छत्ताभिणिवेसेणं।
चार कारणों से पुरुष दूसरों के विद्यमान गुणों का भी विनाश (अपलाप) करता है, जैसे१. क्रोध से, २. प्रतिनिवेश से दूसरों की पूजा-प्रतिष्ठा न देख सकने से। ३. अकृतज्ञता से (कृतघ्न होने से), ४. मिथ्याभिनिवेश (दुराग्रह) से (६२१)।
६२२ – चउहि ठाणेहिं असंते गुणे दीवेजा, तं जहा—अब्भासवत्तियं, परच्छंदाणुवत्तियं, कजहेडं, कतपडिकतेति वा।
चार कारणों से पुरुष दूसरों के अविद्यमान गुणों का भी दीपन (प्रकाशन) करता है, जैसे१. अभ्यासवृत्ति से— गुण-ग्रहण का स्वभाव होने से। २. परच्छन्दानुवृत्ति से— दूसरों के अभिप्राय का अनुकरण करने से।" ३. कार्यहेतु से— अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरों को अनुकूल बनाने के लिए।
४. कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करने से (६२२)। शरीर-सूत्र
६२३–णेरड्याणं चउहि ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं जहा—कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। चार कारणों से नारक जीवों के शरीर की उत्पत्ति होती है, जैसे१. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से, ४. लोभ से (६२३)। ६२४– एवं जाव वेमाणियाणं।
इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डकों के जीवों के शरीरों की उत्पत्ति चार-चार कारणों से होती है (६२४)।
६२५- णेरइयाणं चउट्ठाणणिव्वत्तिते सरीरे पण्णत्ते, तं जहा—कोहणिव्वत्तिए, जाव (माणणिव्वत्तिए, मायाणिव्वत्तिए), लोभणिव्वत्तिए।
नारक जीवों के शरीर चार कारणों से निवृत्त (निष्पन्न) होते हैं, जैसे१. क्रोधजनित कर्म से, २. मान-जनित कर्म से, ३. माया-जनित कर्म से, ४. लोभ-जनित कर्म से (६२५)। ६२६ – एवं जाव वेमाणियाणं। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों के शरीरों की निवृत्ति या निष्पत्ति चार कारणों से होती है (६२६)।
विवेचन— क्रोधादि कषाय कर्म-बन्ध के कारण हैं और कर्म शरीर की उत्पत्ति का कारण है, इस प्रकार कारण के कारण में कारण का उपचार कर क्रोधादि को शरीर की उत्पत्ति का कारण कहा गया है। पूर्व के दो सूत्रों में उत्पत्ति का अर्थ शरीर का प्रारम्भ करने से है तथा तीसरे व चौथे सूत्र में कहे गये निवृत्ति पद का अभिप्राय शरीर की निष्पत्ति या पूर्णता से है।