________________
स्थानाङ्गसूत्रम्
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त प्रकार के संस्कार को वासनाकाल कहा जाता है। अर्थात् उक्त कषायों की वासना (संस्कार) इतने समय तक रहता है। गोम्मटसार में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उत्कृष्ट वासनाकाल छह मास कहा गया है।
३०८
भाव - सूत्र
३५५— चत्तारि उदगा पण्णत्ता, तं जहा –—–— कद्दमोदए, खंजणोदए, वालुओदए, सेलोदए । एवामेव चउव्विहे भावे पण्णत्ते, तं जहा—कद्दमोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे, वालुओदगसमाणे, सेलोदगसमाणे ।
१. कद्दमोदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ, णेरइएसु उववज्जति । एवं जाव २. [ खंजणोदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति । ३. वालुओदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ, मणुस्सेसु उववज्जति ] |
४. सेलोदगसमाणं भावमणुपविट्टे जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जति ।
उदक (जल) चार प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. कर्दमोदक –— कीचड़ वाला जल । २. खंजनोदक — काजलयुक्त जल ।
३. वालुकोदक— वालु-युक्त जल । ४. शैलोदक — पर्वतीय जल ।
इसी प्रकार जीवों के भाव (राग-द्वेष रूप परिणाम) चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. कर्दमोदक समान — अत्यन्त मलिन भाव ।
२. खंजनोदक समान— मलिन भाव ।
३. वालुकोदक समान — अल्प मलिन भाव ।
४. शैलोदक समान — अत्यल्प मलिन या निर्मल भाव ।
१.
. कर्दमोदक - समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो नारकों में उत्पन्न होता है ।
२. खंजनोदक - समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो तिर्यग्योनिक जीवों में उत्पन्न होता है ।
३. वालुकोदक-समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो मनुष्यों में उत्पन्न होता है। ४. शैलोदक समान भाव में प्रवर्तमान जीव काल करे तो देवों में उत्पन्न होता है ( ३५५) ।
रुत-रूप-सूत्र
३५६ – चत्तारि पक्खी पण्णत्ता, तं जहा रूतसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे णाममेगे णो रुतसंपणे, एगे रुतसंपण्णेवि रूवसंपण्णेवि, एगे णो रुतसंपण्णे णो रूवसंपण्णे ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा रुतसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रुवसंपणे णाममेगे णो रुतसंपणे, एगे रुतसंपण्णेवि रूवसंपण्णेवि, एगे णो रुतसंपण्णे णो रूवसंपण्णे । १. अंतोमुहुत्त पक्खं छम्मासं संखऽसंखणतभवं ।
संजलणादीयाणं वासणकालो द नियमेण ॥ दु
(गो० कर्मकाण्डगाथा )