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चतुर्थ स्थान तृतीय उद्देश
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४. न पथयायी, न उत्पथयायी — कोई पुरुष न मार्गगामी होता है और न उन्मार्गगामी होता है ( ३८८ ) ।
रूप- शील-सूत्र
३८९ - चत्तारि पुप्फा पण्णत्ता, तं जहा रूवसंपण्णे णाममेगे णो गंधसंपण्णे, गंधसंपणे णाममे णो रुवसंपणे, एगे रूवसंपण्णेवि गंधसंपण्णेवि, एगे णो रूवसंपण्णे णो गंधसंपण्णे ।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा रूवसंपण्णे णाममेगे णो सीलसंपण्णे, सीलसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, एगे रूवसंपण्णेवि सीलसंपण्णेवि, एगे णो रूवसंपण्णे णो सीलसंपण्णे ।
पुष्प चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. रूपसम्पन्न, न गन्धसम्पन्न — कोई फूल रूपसम्पन्न होता है, किन्तु गन्धसम्पन्न नहीं होता । जैसे—आकुलि का फूल ।
२. गन्धसम्पन्न, न रूपसम्पन्न — कोई फूल गन्धसम्पन्न होता है, किन्तु रूपसम्पन्न नहीं होता । जैसे— बकुल का फूल ।
३. रूपसम्पन्न भी, गन्धसम्पन्न भी— कोई फूल रूपसम्पन्न भी होता है और गन्धसम्पन्न भी होता है । जैसेही का फूल।
४. न रूपसम्पन्न, न गन्धसम्पन्न — कोई फूल न रूपसम्पन्न होता है और न गन्धसम्पन्न ही होता है। जैसे— वदरी (बोरड़ी) का फूल।
इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे—
१. रूपसम्पन्न, न शीलसम्पन्न — कोई पुरुष रूपसम्पन्न होता है, किन्तु शीलसम्पन्न नहीं होता ।
२. शीलसम्पन्न, न रूपसम्पन्न — कोई पुरुष शीलसम्पन्न होता है, किन्तु रूपसम्पन्न नहीं होता।
३. रूपसम्पन्न भी, शीलसम्पन्न भी— कोई पुरुष रूपसम्पन्न भी होता है और शीलसम्पन्न भी होता है ।
४. न रूपसम्पन्न, न शीलसम्पन्न — कोई पुरुष न रूपसम्पन्न होता है और न शीलसम्पन्न ही होता है ( ३८९) ।
जाति - सूत्र
३९०—– चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा – जातिसंपण्णे णाममेगे णो कुलसंपण्णे, कुलसंपण्णे णाममेगे णो जातिसंपण्णे, एगे जातिसंपण्णेवि कुलसंपण्णेवि, एगे णो जातिसंपण्णे णो कुलसंपणे ।
पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे
१. जातिसम्पन्न, न कुलसम्पन्न — कोई पुरुष जातिसम्पन्न (उत्तम मातृपक्षवाला) होता है, किन्तु कुलसम्पन्न (उत्तम पितृपक्षवाला) नहीं होता ।
२. कुलसम्पन्न, न जातिसम्पन्न — कोई पुरुष कुलसम्पन्न होता है, किन्तु जातिसम्पन्न नहीं होता ।
३. जातिसम्पन्न भी, कुलसम्पन्न भी—– कोई पुरुष जातिसम्पन्न भी होता है और कुलसम्पन्न भी होता है।
४. न जातिसम्पन्न, न कुलसम्पन्न — कोई पुरुष न जातिसम्पन्न होता है और न कुलसम्पन्न ही होता है (३९०) ।